Tuesday, March 29, 2011

कर्म योग पर मेरे विचार ......


कर्म योग पर मेरे विचार ......

बड़ा ही रोचक विषय है कर्म योग और उलझन वाला भी है . कर्मयोग को मै गीता जी के माध्यम से बताने की कौशिश करुगा निम्नलिखित विषयों मे माध्यम से :-

१. आत्मा
२. मनुष्य शरीर
३. कर्म
४. प्रकृति
५. मन
६. पांच विकार (प्रकृति मे विचरण करने वाले विषय)

आत्मा प्रकृति के तीन गुणों द्वारा इस मनुष्य शरीर में स्थापित है और यही तीन गुण ही आत्मा को इस संसार में बाधें रखते है. यह तीन गुण है 
१. सत्तोगुण २. रज़ोगुण ३. त्तमोगुण

कर्म क्यां है - हमारे द्वारा की जाने वाली कोई भी क्रिया वो चाहे शारीरिक हो या मानसिक,  कर्म कहलाती है. वैसे कर्म के होने की शुरुआत सबसे पहले मन में ही होती है. मन हमारे मस्तिक के अन्दर एकत्रित हुई सूचनाओं का इतनी तेज़ी से विश्लेषण करता है कि इस कार्य मे उसका कोई भी सानी नही है. मन द्वारा विश्लेषण की गई सूचनाओं से तुरन्त प्रेरित हो कर हम कर्म करने को बाध्य हो जाते है. हमारे सभी अच्छे या बुरे कर्मो को जन्म मन ही देता है. इसलिए ही सारे संसार में योग की जितनी पद्तियां कार्य कर रही है उनका सबसे पहला व अहम कार्य मन को रोकना ही है. 

अब बात यह पैदा होती है कि मस्तिक तक सूचनाएं पहुचती कहां से है. उसका जवाब है हमारी इन्द्रियां. जीव प्रकॄति में उपलब्ध विषयों को इन इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है और मन द्वारा भ्रमित हो कर प्रकृति के तीन गुणों के चंगुल में फ़स जाता है. यह प्रक्रिया इस प्रकार से है - प्रकृति में उपलब्ध विषय हमारी इन्द्रियों को उलझाते है और इन्द्रियां हमारे मन को उलझाती है मन बुद्दि को और बुद्दि आत्मा को उलझा कर इस मनुष्य शरीर में बान्ध कर कर्म करने को बाध्य करती है . 

तब प्रकृति हमसे अपने तीन गुणों के ज़ोर पर कर्म करवाती चली जाती है और फल स्वरूप हमे यह तीन गुण ही मिलते है,  वो फल कोई भी हो सकता है सात्त्विक, राज़सिक या फिर तामसिक  तब हम यह सोच रहे होते है कि मैने यह कर दिखाया, मैने वो कर दिखाया या फिर उलटा होने पर भगवान को भी दोष दे देते है. जब कि वास्तव में हम एक विशेष प्रणाली के तहत ही कार्य कर, फल प्राप्त कर रहे होते है. मज़े की बात यह है कि प्रकृति ही हमसे कर्म करवाने का काम करती है और प्रकृति ही फल देने का कार्य करती है. प्रकृति के पास वार करने के लिए तीन गुण ही है . आमतौर पर हम कुछ कौशिश करके दो गुण, रज़ोगुण और तमोगुण से तो कुछ हद तक बच जाते है परन्तु तीसरे गुण यानि सत्तोगुण से नही बच पाते. तब हम यह सोच रहे होते है कि हम तो धार्मिक कार्य कर रहे है, सात्त्विक कार्य कर रहे है और फिर फल चाहने लगते है. पत्ता नही हमे क्यूं लगता है कि सात्त्विक कार्यों का फल कुछ ज्यादा ही मीठा होगा जबकि यह भी प्रकृति का एक वार ही है . गीता हमे तीनों गुणो से ऊपर उठने का सन्देश देती है. देखिये एक भी गुण का थोड़ा सा अंश भी मुक्त होने में बाधक बन सकता है. क्योकि आत्मा को इस मानव शरीर मे प्रकृति के यह तीन गुण ही बाधंते है और बिना तीन गुणों को छोड़े आत्मा मुक्त हो ही नही सकती.

यही कर्म योग है. कर्म के द्वारा योग यानि कर्म भी करना और फल की ईच्छा न रखना ही कर्मयोग है. समस्या मन से ही है और खतरा भी मन से ही है. क्योकि हमारे (जीव) और प्रकृति के बीच कार्य प्रणाली चलाने वाली जो प्रक्रिया है वो मन है. ऐसा नही है कि मन कोई बुरी चीज है और न ही मन से डरना चाहिये याद रखिये गीता में कहा गया है कि आत्मा जोकि इन्द्रियां, मन,  बुद्दि से परे है, सूक्ष्म है और बहुत ही शक्तिशाली है. हम आत्मा की शक्ति से कौशिश करके मन पर विजय पा सकते है. 

जरूरत है इस विशेष प्रणाली को समझने की और समझ कर इस प्रणाली के तहत कार्य करने की . जब यह समझ आ जायेगा तब सभी प्रकार के योग अपने आप ही सिद्द हो जायेगे. जब कर्म का बन्धन नही होगा तो प्रकृति आप पर अपना जादू नही चला पायेगी और तब आप और ईश्वर के बीच और कोई नही होगा . गीता कहती है कि कर्म योग से बुद्दि अति सूक्ष्म हो जाती है और फिर थोड़े से ध्यान से भी उस अन्नंत आन्नंद का हिस्सा बना जा सकता है. यह सब कुछ वैज्ञानिक है, तकनीकी है और इसे इसी ढंग से ही समझना होगा तभी बात बन पायेगी.  यह है कर्मयोग .........

1 comment:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर, सार्थक और अर्थपूर्ण विवेचन ........ आभार