Wednesday, March 23, 2011

अर्जुन का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न


अर्जुन का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न

गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कुरूक्षेत्र के मैदान यानि युद्ध भुमि में देते हैं । जहां भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बने है। युद्ध क्षेत्र में जहां दोनो सेनाएं आमने-सामने है वहां अर्जुन अपने सारथी भगवान श्री कृष्ण को अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले जानें को कहते है । रथ को दोनो सेनाओं के मध्य ले जाने के बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध की अभिलाषी कौरव सेना को देखने के लिये कहते है ।

अर्जुन कौरव सेनां की ओर देखते है जहां उनके तात भीष्म पितामह खडे है, गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, चाचे, मामे, ताऊ, भाई व अन्य सगे सबन्धी खडे है । उन सबको देखकर अर्जुन का मन विचलित हो जाता है वो घबरा जाते है वो कहते है कि मै कैसे भीष्मपितामह,गुरू द्रोणाचार्य पर बाण चलाऊ; ये दोनों ही मेरे पूजनीये है. अर्जुन कहते है कि युद्ध अपनी रक्षा के लिये या फिर अपनों को लाभ पहुचाने के लिये किया जाता है, पर यहां तो अपनो से ही युद्ध करना है ।

फिर अर्जुन युद्ध से होने वाले विनाश की बात करते है । इस प्रकार से तरह-तरह की बातें करके अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को युद्ध के लिये मना कर देते है व मन में उदासी लिए आखों में आँसू भर धनुष व बाणों को छोड कर रथ के पिछ्ले हिस्से मे बैठ जाते हैं ।

भगवान श्री कृष्ण जो अब तक अर्जुन की सभी बातें ध्यान से सुन रहे है, सब कुछ सुनने व देखने के बाद हँसते हुए अर्जुन को गीता का उपदेश देना प्रांरम्भ करते है । गीता का उपदेश दुसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से शुरू होता है , पर अर्जुन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न तीसरे अध्याय के ३६ वें श्लोक मे है; जहां अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पुछ्ते है :

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः ।
अनिच्छ्त्नपि बाष्णेय बलदिव नियोजितः ॥ ( अध्याय ३ श्लोक न: ३६ )

अर्थात : हे कृष्ण । तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है । 

गीता का उपदेश दुसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से शुरू होता है और अर्जुन का प्रश्न ३६ वें श्लोक पर है यानि इस बीच २५ श्लोक बीत चुके है, भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच बहुत सारी वार्ता हो चुकी है ।  

११ वें श्लोक से पहले अर्जुन विषादयुक्त है, अश्रुपूर्ण है, दुःखी है, परेशान है वो युद्ध में अपनो को मारना नही चाहता । 

भगवान शुरूआत करते है आत्मा से;  अजर, अमर, सनातन आत्मा । भगवान समझाते है कि इस देह मे यह जीव सदा ही अवध्य है । 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्र्चनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥  ( अध्याय २ श्लोक न: १९ )

अर्थात जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा इसको मरा मानता है, वे दोनो ही नही जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव मे न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आत्मा के बारें मे बहुत सारी बाते बतलाते है जो बडी ही विचित्र है अर्जुन बडे ही ध्यान से सारी बाते सुन रहा है और समझने की कौशिश कर रहा है । फिर भगवान अर्जुन को लोक कीर्ति व लोक निन्दा की बात समझाते है। फिर कर्मयोग के बारे मे चर्चा करते है । अर्जुन को आसक्ति रहित होकर कर्म करने का उपदेश देते है । समबुद्धि से युक्त्त होकर यानि सुखः व दुखः को समान समझकर फलेच्छा का त्याग कर समत्वरूप से कर्म करने को कहते है । कर्मबन्धन व कर्मबन्धन  से छूटने के उपाय बताते है । समत्व योग के बारे मे बताते है ।

श्री कृष्ण कहते है :

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माघोगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ( अध्याय २ श्लोक न: ५० )

अर्थात समबुद्धिअयुक्त्त पुरूष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त्त हो जाता है । इससे तु समत्वरूप योग मे लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मों मे कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूट्ने का उपाय है ।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छ्न्त्यनामयम् ॥    ( अध्याय २ श्लोक न: ५१ )

अर्थात क्योंकि समबुद्धि से युक्त्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते है ।

श्री कृष्ण बोल रहे है अर्जुन सुन रहा है । अर्जुन को बात कुछ-कुछ समझ आने लगी है । अर्जुन को समझ आ गया है कि यह शरीर नाशवान है आत्मा अविनाशी है । शरीर मरता है पर आत्मा नही मर सकता और न ही आत्मा को मारा जा सकता । समत्वरूप योग की बात भी अर्जुन को समझ आ रही है । अर्जुन समझ रहा है कि समत्वरूप योग से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है । अर्जुन अब परमात्मा से नित्य सयोग का आशय भी समझना चाहता है । इसीलिय ही अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पुछ्ता है :

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ( अध्याय २ श्लोक न: ५४ )

अर्जुन बोले - हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरूष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरूष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

उत्तर मे भगवान स्थिरबुद्धि पुरूष के लक्षणों के बारे मे बताते हैं कि स्थिरबुद्धि पुरूष कामना रहित, राग-द्वेष रहित, दुखः-सुखः मे एक समान होता है, स्थिरबुद्धि पुरूष की इन्द्रियां उसके वशं मे होती है व उसका अन्तःकरण शुद्ध होता है । 

अब गीता का तीसरा अध्याय शुरू होता है । अर्जुन कर्म योग व ज्ञान योग को समझने की कौशिश कर रहे है । भगवान कर्म योग  को विस्तार से समझाते है । कर्मो के नियम समझाते है । प्रकृति व प्रकृति के नियमों को समझाते है । देवताओं की, यज्ञ की और फिर सृष्टि चक्र की बात बताते है । कर्मयोग द्वारा ईश्वर प्राप्ति की बात करते है । यहा भगवान महान ज्ञानी राजा जनक का उदाहरण देते हैं जिन्होने कर्म के द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी । श्री कृष्ण समझाते है कि सभी प्राणी प्रकर्ति के तीन गुणों से प्रेरित होकर कर्म करते है परन्तु जीव अपने अहम के कारण स्वयं को कर्ता समझ बैठता है लेकिन ज्ञानी पुरूष त्रिगुणात्मक प्रकर्ति को समझता हुआ कि गुण ही गुणों मे बरत रहे है, ऎसा समझकर उनमें आसक्त्त नही होता ।

अर्जुन अब तक बहुत सारी बाते समझ चुके है । अर्जुन आत्मा - परमात्मा के गुढ विषय को समझ चुके है । अर्जुन समझ चुके है कि मनुष्य का जन्म ईश्वर प्राप्ति के लिय हुआ है और परमात्मा प्राप्ति ही मनुष्य जन्म का एक मात्र लक्ष्य है । बाकि सब कार्य अपने मूल उद्देश्य से भटक कर  मनुष्य प्रकर्ति के गुणों द्वारा वशींभूत हो कर करता है । और पाप का भागी बनता है इसीलिये ही अर्जुन पुछता है कि :   

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः ।
अनिच्छ्त्नपि बाष्णेय बलदिव नियोजितः ॥ ( अध्याय ३ श्लोक न: ३६ )

अर्थात : हे कृष्ण । तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है । 

यानि मनुष्य जन्म ही जब ईश्वर प्राप्ति के लिये मिला है तो फिर क्यों नही हर कोई सीधा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल पड्ता, वो कोनसी एसी शक्त्ति है जो उसके कार्य मे बाधक बनती है ? कौन उसको भटकाता है ? कौन उसको रोकता है ? 

अर्जुन का यह प्रश्न मनुष्य जीवन की बहुत बडी एकमात्र सच्चाई है ? यही प्रश्न हम सब को अपने आप से पुछना चाहिये कि " मैं किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण कर रहा हूँ - मै क्यों नही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल रहा ? 

यह बडा ही सुन्दर प्रश्न है । इसका उत्तर भगवान श्री कृष्ण जो देते है - वो बडा ही वैज्ञानिक है और सरल भी है । जोकि हर प्राणी को समझना जरूरी है ।

काम एष क्रोध एष रजोसमुभ्दवः ।
महाशनो महापाप्मा विध्दयेनमिह वैरिणम् ॥  ( अध्याय ३ श्लोक न: ३७ )

अर्थात : श्री भगवान बोले - रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगो से कभी न अघाने वाला और बडा ही पापी है, इसको ही तु इस विषय मे वैरी जान ।

देखिए इस प्रश्न के अन्दर ही प्रकर्ति का विज्ञान छिपा है । इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है । प्रकर्ति, जीव और परमात्मा । जीव परमात्मा का अंश है और प्रकर्ति वो वातावरण है जहां परमात्मा के बारे मे जाना जा सकता है । प्रकर्ति के तीन गुण है, सत्तोगुण, रजोगुण व त्तमोगुण जो इस वातावरण का सचांलन करते है ।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेष वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकर्तिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ( अध्याय १८ श्लोक न: ४० )

अर्थात : पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी एसा कोई भी सत्त्व नहीं है जो प्रकर्ति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हों. 

कामना जो कि रजोगुण से पैदा होती है. अब जैसे ही कामना पैदा हुई तो रजोगुण का काम शुरू हो गया, कामना यदि किसी कारण वश पुरी नही हुई तो क्रोध आ जाता है यानि कामना पुरी न होने पर त्तमोगुण का कार्य शुरू हो गया । और यदि कामना पुरी हो गई तो ममता पैदा हो गई जिससे फिर मोह पैदा हो गया अब यहां सब रजोगुण का कार्य आरम्भ हो गया जोकि कर्म फल से बान्धता है । यानि जब तक आप प्रकर्ति के गुणो से छेड्छाड करते रहेगें ये गुण आपको उतर देते रहेगें और आप कर्म फल के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्क र लगाते रहेगें । भगवान इन गुणो से सर्वथा अलग है । अगर ईश्वर को पाना है तो इन तीनों गुणों को छोडना पडेगा । जब मनुष्य प्रकर्ति के इन तीन गुणो से ऊपर उठ जाएगा तो प्रकर्ति की फल देने की क्रिया समाप्त हो जाएगी । मन शान्त हो जाएगा, अन्तःकरण शुद्ध हो जाएगा और जीव स्वयं ही ईश्वर को प्राप्त हो जाएगा । 

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