इस जगत में आत्मा के आवागमन के लिये गीता जी में दो मार्ग बताये गये है . उतरायण और दक्षिणायन
उतरायण मार्ग :-
इसे देवयान भी कहते है . इस मार्ग से यात्रा करने वाले जीवों को इस संसार मे वापिस नही आना पड़्ता . इसे मार्ग ज्योतिर्मय मार्ग कहा जाता है . जब सुर्य उतर की ओर यात्रा कर रहा होता है तो उतरायण चल रहा होता है . उतरायण छ: महीनो का होता है . इस बात की पुष्टि महाभारत की एक घटना से होती है जो कि इस प्रकार से है - जब भीष्म पितामह अर्जुन द्वारा छोड़े गये बाणों से बीन्ध गये थे तभी उन्होने देखा की सुर्य दक्षिणायन में है और उतरायण आने में अभी काफ़ी समय बाकि है . तभी उन्होने एक तकिये की मांग की जिसे अर्जुन ने दो बाणों का तकियां बना कर पुरी की. उसके बाद उन्होने श्री कृष्ण के कहने से पाण्डवों को ज्ञान भी दिया और तब उतरायण आने पर ही अपने प्राणो का त्याग किया.
दक्षिणायन मार्ग :-
इसे पितृयान भी कहते है . इस मार्ग से मरकर गये जीव को अपने कर्मों के अनुसार फल भोग कर इस पृथ्विलोक में वापिस आना पड़्ता है . इसे मार्ग कृष्ण मार्ग कहा जाता है . जब सुर्य दक्षिण की ओर यात्रा कर रहा होता है तो द्क्षिणायन चल रहा होता है . द्क्षिणायन भी छ: महीनो का ही होता है .
इन दोनों मार्गो के बारे में गीता के १८ वें अध्याय श्लोक सख्यां २३, २४, २५, २६ में उल्लेख मिलता है.
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