मन्त्र ध्यान
मन्त्र क्याँ है ?
ईश्वर शब्दोच्चरण करता है और उसकी वाणी से जगत की सृष्टि होती है । यह एक अत्यन्त पुरातन सिद्धान्त है जिसे निरीश्वरवादी जैन और बोद्ध धर्मो को छोड कर सभी धर्म स्वीकार करते है. धर्म शास्त्रो में सबसे पुरातन वेदों में कहा गया है, "ब्रह्म सर्वप्रथम विधमान था । दुसरा शब्द था जो उसके साथ था; शब्द ब्रह्मा है" शब्द को उससे दुसरा कहा गया है क्योकि पहले वह ब्रह्मा में अव्यक्त रूप से रहता है और बाद में शक्ति के रूप में उससे प्रकट होता है । इस प्रकार शब्द ब्रह्मा की शक्ति है जो शक्तिमान के साथ एक है.
ईसा की चतुर्थ गाथा का प्रारम्भ इस प्रकार होता है, "प्रारम्भ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था"
सृष्टि के क्रम में रूप के पूर्व शब्द की अभिव्यक्ति होती है । अतः प्रत्येक शब्द एक-एक रूप विशेष का उत्तरदायी है । एक छोटे से प्रयोग से हम यह समझ सकते है - एक ध्वनि सयंत्र को लो और उसे एक तख्ते पर बिखरे बारीक रेत कणों की हल्की सी परत के निकट बाजाओ । आप देखेगें की रेत के कण विभिन्न ज्यामितीय आकार धारण कर लेगें । इसी प्रकार मन्त्र भी स्पन्दन है और उनमें रचनात्मक और संहारात्मक दोनो ही प्रकार की शक्तियां होती है. रचनात्मक लाभ दायक मन्त्र भी होते है व संहारात्मक हानिकारक मन्त्र भी होते है.
भगवद्दनाम या कोई शब्द समूह मन्त्र कहलाता है. मन्त्र परमात्मा का गुढ़ शब्द-प्रतीक होता है - जिसके मनन से पाप से मुक्ति, स्वर्गापवर्ग तथा चतुर्वर्ग की प्राप्ति है वह मन्त्र कहलाता है. चतुर्वर्ग से अभिप्राय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है.
पुरातन काल से ही भारत में ऋषियों द्वारा मन्त्रों का प्रयोग होता आया है परन्तु ऋषियों ने इनकी रचना नही की थी, अपितु अतीन्द्रिय अवस्था में उनका अविष्कार किया था इन मन्त्रों को किसी भाषा के शब्दों की तरह जोङ जोङ कर बनाया नही गया था । हिन्दु जाति के आचार्यों ने अध्यात्मिक उत्कर्ष की अवस्था में इनका अविष्कार किया था.
मन्त्र में अक्षर ध्वनि-विशेष के क्रम में सजाए गए होते है । ये अक्षर इन ध्वनियों के प्रतीक होते है ।
इस ध्यान मे साधक एक मन्त्र को चुन लेता है आमतौर पर यह मन्त्र गुरू द्वारा दिया जाता है. इस मन्त्र को १०८ मनको की एक माला के साथ बोला व जपा जाता है. इसमे सख्यां का खासतौर पर ध्यान रखा जाता है.
इसमें मन्त्र आरम्भ में बैखरी जाप करना होता, बैखरी मतलब मन्त्र को बोल कर जपना होता है ताकि मन इधर उधर ना भटके और उसके बाद मन्त्र का मानसिक जाप करना होता है. यहां मन्त्र के उच्चारण का खासतौर पर ध्यान रखना होता है. उच्चारण शुद्ध व स्पष्ट होना चाहिये.
गुरू मन्त्र को हमेशा गुप्त रखा जाता है.
जप का अभ्यास ध्यान के किसी भी आसन में जैसे पद्दासन, सुखासन या सिद्धयोनि आसन मे बैठ कर किया जा सकता है. इसमें दाहिने हाथ में माला होनी चहिये व हाथ घुटनो पर टिका होना चाहिये माला भूमि को छुती हुई होनी चाहिये. माला को लेकर दाहिना हाथ वक्ष स्थल के पास भी रह सकता है. आमतौर पर माला को भी एक थैली मे रखा जाता है. माला रूद्राक्ष की या तुलसी की हो सकती है. दाहिने हाथ कि मध्यमा उँगली और अँगुठे से माला के मनके को घुमाया जाता है. मन्त्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की और मुहँ करके किया जाता है.
मन्त्र जप करके चित्त शुद्ध होता है व पवित्र होता है. जप करते समय अवचेतन मन के छिपे हुए संस्कार विभिन्न प्रतिबिम्बों, चित्रों, द्रुश्यों और विचारों के रूप में चेतन मन के तल पर आते है. जिन्हे तटस्थ होकर देखना व मन्त्र जाप में तल्लीन रहना होना ही मन्त्र ध्यान का आवश्यक अंग है.
आभार : ध्यान ( राम कृष्ण संघ के सन्यासियों द्वारा विवेचन) मन्त्र विज्ञान स्वामी घनानन्द
ध्यान तन्त्र के आलोक में - बिहार स्कूल आफ़ योगा
No comments:
Post a Comment