साख्य योग - गीता से
गीता जी के अध्याय ३ के श्लोक सख्यां ३, ४, और ५ से शुरूआत करते है जो कि इस प्रकार से है.
लोकेऽसिमन्द्विविधा निष्ठा, पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साड्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम ॥ अध्याय ३ श्लोक सख्यां ३
श्री भगवान बोले - हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है । उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्म योग से होती है ॥
न कर्मणामनारम्भात्रैष्कम्य्रं पुरुषोऽश्रुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ अध्याय ३ श्लोक सख्यां ४
अथार्त - मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न ही कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ॥
न हि कश्र्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठ्त्यकर्मकॄत ।
कार्यते ह्वावशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ अध्याय ३ श्लोक सख्यां ५
निसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है ॥
इन तीन श्लोको से ही गीता में सांख्ययोग की शुरूआत होती है. निम्नलिखित बातों से इसे आसानी से समझा जा सकता है.
१) कर्म
२) ज्ञान
३) प्रकृति व प्रकृति जनित तीन गुण
सारी की सारी बात इन तीन श्लोको से ही समझी जा सकती है . सांख्ययोगी ज्ञान के द्वारा यात्रा करता है. लेकिन कर्म तो सभी को ही करना है क्योकि कोई भी मनुष्य क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नही रह सकता. क्योकि जब तक आप मनुष्य शरीर में है प्रकृति आप से कर्म करवाती ही रहेगी . अब ऊपर लिखित तीन विषयों को ले कर समझने की कौशिश करते है.
कर्म - जोकि आपको करना ही है और जिस पर आपका कोई भी नियन्त्रण नही है क्योकि आप प्रकृति जनित तीन गुणो द्वारा कर्म करने के लिये बाध्य है !
ज्ञान - ये आपके हाथ में है. आप चाहे तो ज्ञान अर्जित कर सकते है और चाहे तो नही भी कर सकते है .
प्रकृति व प्रकृति जनित तीन गुण - प्रकृति ने व उसके गुणों ने तो अपना कार्य करना ही है उन्हे भी आप नही रोक सकते.
सारी बात ज्ञान पर आ कर रूक जाती है आप ज्ञान की मदद से प्रकृति जनित गुणों के फल को निरस्तर कर सकते है. कर्म किये बिना आप रह नही सकते और आप जैसे कर्म करेगें प्रकृति वैसा ही फल उत्प्न्न करती चली जायेगी.
वो फल आपको नही मिले ऐसा कुछ करना है. इसके लिये सांख्ययोगी ज्ञान का प्रयोग करता है, सांख्ययोगी यह समझ पैदा करता है कि "प्रकृति से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुण में बरतते है, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापि भगवान में एकीभाव से स्थित रहता है" जब आप अपने लिये कर्म ही नही करोगे तो आपको फल नही मिलेगा, तब फल उसे ही मिलेग जिसके लिये आप कर्म करोगे. ऐसी सोच और समझ के साथ चलना ही सांख्ययोग है . साख्ययोगी केवल दर्शक बन कर देखता है अपने कर्मो को भी और प्रकृति के उत्तर को भी. याद रहे कि सांख्ययोगी का एक मात्र हथियार ज्ञान ही है . सच्चाई भी यही है कि आप कुछ नही करते प्रकृति ही करवाती है सब कुछ अपने तीन गुणों के माध्यम से.
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