कामना और मोक्ष ...
जीव मे मन में जब तक कामना रहती है तब तक वो जन्म-मृत्यु, अशान्ति, दुखः सुख आदि से बन्धा रहता है । जब वो कामना को छोड़ देता है तो यह प्रकृति उसे मुक्त कर देती है । यह तन्त्र ही परमात्मा ने ऐसा ही बनाया है । गीता में कामना को अग्नि के समान बताया है यानि जैसे अग्नि में जितना भी कुछ डालते रहो अग्नि और भी प्रचण्ड होती चली जाती है । इसी प्रकार कामना है इसे भी जितना पूरा करते जाओ उतनी ही बढ़ती चली जाती है । इसीलिय गीता इसे ज्ञानियों का सबसे बड़ा दुश्मन बताती है।
अब कामना कैसे पैदा होती है इसकी तकनीकी समझते है । विषयों में विचरने वाली इन्द्रियों में से हमारा मन यदि किसी एक भी इन्द्रिय के साथ रहता है तो उस विषय की कामना पैदा हो जाती है तब इन्द्रिय ही द्वारा उस विषय के प्रति आसक्ति उतपन्न हो जाती है । एक ही इन्द्रिय ने मन को काबु कर लिया और तब मन बड़ी तेज़ी से विश्लेषण करके बुद्धि को काबु कर लेता है और तब यह बुद्धि आत्मा को यानि जीव को उस विषय में लगा देती है ।
गीता में साफ़ साफ़ इन्द्रियों को स्थूल शरीर से बलवान बताया गया है । इन इन्द्रियों से बलवान मन है और इस मन से बलवान बुद्धि है और इन सबसे बलवान आत्मा है । (अध्याय २ श्लोक ४२)
यहां श्री कृष्ण कहते है कि - हे अर्जुन तु बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म बलवान और अन्तयन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा ही मन को वश मे कर के इस काम रूपी दुर्जन शत्रु को मार डाल । (अध्याय २ श्लोक ४३)
यानि जो कामना के पैदा होने की तकनीक है ठीक उससे उलट तकनीकी अपनाने की सलाह दे रहे है श्री कृष्ण - वहां तकनीकी इस प्रकार से थी :-
विषय <-----(कामना)----- इन्द्रियां <--------- मन <--------- बुद्धि <--------- आत्मा
और अब इससे ठीक उलट तकनीकी देखते है :-
आत्मा ---------> बुद्धि --------> मन ---------> इन्द्रियां ----(कामना)----> विषय
इस प्रकार से शक्तिशाली आत्मा के बल पर हम बुद्धि मन इन्द्रियों को काबु में रख सकते है और जीव के सबसे बड़े शत्रु काम (कामना) पर विजय प्राप्त कर सकते है ।
अब यह देखना है कि यह कामना ही मोक्ष से कैसे सबन्धित है ?
अब देखते है कि यह सब करवा कौन रहा है और कामना या इच्छा या जो हम कर्म कर रहे है उन सब का फ़ल कौन दे रहा है । उसका उतर भी गीता के पास है । गीता में साफ़-साफ़ लिखा है कि - सर्वव्यापि परमेश्वर न तो कर्तापन की न कर्मो की और न ही कर्म फ़ल के सयोग की रचना करते है; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है (अध्याय ५ श्लोक १४) यह बात तो तय है कि परमात्मा का इस बात से कोई लेना-देना नही है । उन्होने तो एक तन्त्र, एक प्रणाली बना कर छोड़ दी है जो अपना काम स्वंय कर रही है । वो प्रणाली वो तन्त्र है परमात्मा द्वारा सृजित की गई प्रकॄति ।
प्रकृति अपने तीन गुणों सतोगुण, रज़ोगुण, तमोगुण के बल पर जीव को अपने अधीन बनाये रखती है । सारा का सारा समुदाय प्रकृति के इन तीन गुणो से प्ररित हो कर ही कर्म करता है और अपने कर्मो के अनरूप फ़ल भी इसी प्रकृति से इसके अन्दर ही प्राप्त करता है । यह तीन गुण ही आत्मा को शरीर में बान्धते है (अध्याय १४ श्लोक ५) इन तीन गुणो से मुक्त होना ही मोक्ष कहलाता है ।
यह गुण तभी अपना कार्य करना शुरू करते है जब जीव इच्छा कर देता है । इच्छा या कामना करने का आशय है कि आपने प्रकृति के गुणो को छेड़ दिया । देखिये यह एक पूर्व निर्धारित प्रणाली है एक तन्त्र है जिसमें हम कामना का निवेश करते है और बदले में माया रूपी बहुत कुछ प्राप्त करते चले जाते है और उसी प्राप्ति मे उलझ के रह जाते है ।
अब यदि कामना नही करेगे तो प्रकृति का कोई भी गुण काम नही करेगा । हमे कुछ नही चाहिये तो प्रकृति को भी कुछ नही देना । हमे इस प्रणाली के अन्दर रह कर ही इस प्रणाली से बच कर रहना है । प्रकृति के तीन गुणो से मुक्त होना ही मोक्ष कहलाता है ।
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