प्रकृति के तीन गुण
इस प्रकृति के तीन गुण है जोकि इस प्रकार से है :-
१. सत्तोगुण
२. रज़ोगुण
३. त्तमोगुण
गीता मे लिखा है कि आत्मा को मनुष्य शरीर में तीन गुण बान्धते है । यानि यह तीनों गुण ही इस संसार में बान्धने वाले है । इन तीनो गुणो से छूटना ही मुक्त होना कहलाता है ।
सत्तोगुण :-
सत्तोगुण हमें ज्ञान के अभिमान से बान्धता है । इसमें कोई शक़ नही है कि सत्तोगुण निर्मल है और जीवन में प्रकाश करने वाला है । परन्तु यह भी सच है कि अन्य दो गुणों के वार तो आसानी से समझ में आ जाते है पर सत्त गुण का वार आसानी से समझ में नही आता । क्योकि सत्तोगुणी व्यक्ति को हमेशा यही लगता रहता है कि वो तो परमात्मा के कार्य कर रहा है उसके बदले अगर सुख चाह रहा है तो यह तो उसका हक है । बस इसी बात पर ही वह व्यक्ति सत्तोगुण तक ही सीमित रह जाता है उससे बाहर नही निकल पाता । प्रकृति भी फ़ल स्वरूप अच्छा परिणाम ही देती है जिससे सत्तोगुणी शायद यह भी समझता है कि परमात्मा उसे फल दे रहे है । पर जब तक कामना और चाहना है तब तक प्रकृति ही काम कर रही है । परमात्मा की बात तो इस "कामना और चाहना" के बाद शुरू होती है ।
मगर हां यदि इस प्रकृति मे अन्दर जन्म-मृत्यु के साथ रहना हो तो सत्तोगुण सबसे अच्छा विकल्प है । क्योकि इसमें मिलने वाला फ़ल निर्मल तो होगा ही और यदि इस गुण के साथ मृत्यु को प्राप्त हो जाते है तो भी अगला जन्म में उत्तम कुल में ही होगा । क्योकि सत्तोगुण का कार्य ही सुख में लगाना है ।
अब कैसे पत्ता चले की सत्तोगुण बढा है - देखिये रज़ोगुण व त्तमोगुण को दबा कर सत्तोगुण बढता है । पहली पहचान तो यही है यानि जब रज़ोगुण व त्तमोगुण जीवन में घटने लगे तो समझना चाहिय कि अब सत्तोगुण बढ़ने लगा है । सतोगुण बढ़ने पर इन्द्रियों मे चेतना जाग्रत होने लग जाती है, विवेकशक्ति अपने-आप ही आ जाती है ।
रज़ोगुण :-
इस गुण से संसारिक वस्तुओं में राग पैदा होता है । संसारिक वस्तुओं में आसक्ति पैदा होती है । इस गुण में कामना बलवती होती है । जिससे जीव कर्म करने को प्रेरित होता है और परिणाम स्वरूप फ़ल भी प्राप्त करता चला जाता है । इस गुण से प्रेरित होकर जीव हमेशा ही "कामना और चाहना" के चक्कर में फ़ंसा रहता है । संसारिक कार्यों के सिवाय और कुछ भी नज़र नही आता ।
रज़ोगुण बढ़ने पर लोभ बहुत बढ़ जाता है । जितने भी कार्य जीव करता है सब सकाम भाव से ही करता है यानि फ़ल के लिये ही करता है जिससे जीवन मे अशान्ति बढ़ जाती है ।
अब अगर रज़ोगुण के साथ मृत्यु हो जाती है तो अगला जन्म भी आसक्त मनुष्यों के बीच ही होगा । यानि रज़ोगुणी व्यक्ति के लिये हर जन्म में अशान्ति ही है और कुछ नही ।
तमोगुण
यह अज्ञान की पैदावार है । सबसे ज्यादा देह अभिमान त्तमोगुणी को ही होता है । प्रमाद, आलस्य व निद्रा इसके फ़ल है । त्तमोगुण में ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढका हुआ होता है । व्यर्थ चिन्तन, व्यर्थ चेष्टा अपने कर्तव्य कर्मों से दूर भागना, बेगैर सोचे समझे बोलना और बिना सोचे कोई भी कार्य कर देना यह त्तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण है । इसमें अज्ञान का बहुतयता होती है ।
त्तमोगुणी व्यक्ति मृत्योपरांणत मूढ योनियों यानि कीट, पशु आदि योनियों मे जन्म लेता है । यानि त्तमोगुणी व्यक्ति को दुबारा जल्दी से मनुष्य शरीर नही मिलता । जब जीवन में सत्तोगुण व रज़ोगुण घटता दिखाई दे तो समझ लेना चाहिये कि त्तमोगुण बढ़ रहा है ।
गुणातीत अवस्था
मैने पहले ही कहा है कि प्रकृति के यह तीन गुण ही आत्मा को मनुष्य शरीर मे बान्धते है । जब जीव इन तीनो गुणो को छोड़ देता है तो वह गुणातीत कहलाता है । तब प्रकृति के तीनो गुण उसका कुछ भी नही बिगाड़ सकते । इस लिये इस मनुष्य शरीर की उत्पत्ति के कारण इन तीन गुणो का उल्लघन्न करके जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखो से मुक्त हुआ जीव परमानन्द में लीन हो जाता है ।
इस अवस्था में जीव साक्षी भाव से इन गुणो को और इनसे उत्पन्न होने वाले फ़ल को केवल देखता है । उसमें कर्त्तापन समाप्त हो जाता है । वो निरन्तर आत्मभाव में स्थित रहता है सुख-दुख, मान-अपमान, प्रिय-अप्रिय, मित्र-वैरी सब एक समान लगने लग जाते है । तब अपने आप ही उसका एक मात्र आश्रय स्वंय परमात्मा ही हो जाते है ।
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