बड़ा ही प्यारा खेल है । इस खेल की सबसे मज़ेदार बात यह है कि खिलाने और खेलने वाला दोनों एक ही है । फ़िर भी फ़र्क दिखता है । इसी फ़र्क को मिटाने के लिये ही यह यात्रा है । यह यात्रा है स्वंय को स्वंय से मिलाने की । इसमें कुछ ढूंढना नही है ब्लकि स्वंय को स्वंय द्वारा बाहर निकालना है । बाहर निकालना है माया से । यह भी एक खेल है । खेल है; नाम ख़त्म करने का और चेहरे को बदलने का । जब तक बाहर नही निकलते तब तक नाम व चेहरे बदलते रहेगे ।
गीता कहती है - यह आत्मा इस शरीर में प्रकृति के तीन गुणों से बन्धी हुई है । यह तीन गुण है सतोगुण, रज़ोगुण और तमोगुण । इन्ही तीन गुणों के कारण ही जीव इस शरीर में है । इन तीनो गुणों को छोड़ कर गुणातीत होना ही लक्ष्य है । जिस दिन, जिस वक्त जीव इन तीन गुणो को छोड़ देगा उस दिन वो इस माया से, समय से परे हो जायेगां और स्वंय में विलीन हो जायेगां । वास्तव में यह लड़ाई मन और प्रकृति कें इन तीन गुणो के बीच की है ।
थोड़ा और गहराई मे जाते है । प्रकृति के गुणों और जीव के बीच है इन्द्रियां, मन और बुद्धि । जीव मन के माध्यम से प्रकृति के गुणो की ओर आर्कषित होता है । इन्द्रियां तीन गुणों के विषयों को मन तक पहुचाती है । मन और जीव मे मध्य है बुद्धि जोकि जीव को बहला कर संसारिक कृत्यों मे लगाए रख़ती है । यह तन्त्र है प्रकृति का । यह शरीर तब तक बदलते रहते है जब तक जीव इस आर्कषण को पार नही कर लेता ।
गीता में साफ़-साफ़ लिखा है कि पिछले जन्म के संस्कार अगले जन्म में फिर से मिल जाते है । यानि अगली यात्रा वही से शुरू होती है; जहां से पिछली यात्रा समाप्त हुई थी । (श्री मद भगवद गीता अध्याय १५ श्लोक ८) जिस प्रकार के गुणों से कर्म किये होते है उसी प्रकार से अगला जन्म मिल जाता है, शरीर बदल जाता है नाम बदल जाते है; यात्रा जारी रहती है ।
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