Thursday, April 7, 2011

समाज के चार वर्ग


समाज के चार वर्ग

प्रचीन भारत में हमारा पुरा समाज चार वर्णो में बटां हुआ था . जो कि इस प्रकार से है . ब्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . ऐसा हमारे लगभग सभी शास्त्रों के आता है. गीता में भी इस पर एक श्लोक आता है :-

चातुर्वण्य्रं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम ॥ (अध्याय ४ श्लोक सख्या १३)

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र - इन चार वर्णो का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तु वास्तव में अकर्ता ही जान ॥ 

इस बात का आशय गलत समझा कर समाज का शोषन किया गया । सोचने वाली बात यह है कि स्वंय भगवान को क्या आवश्यकता थी कि वो खासतौर पर भारत के लोगो के समाज का ही बटवारा करे । वो भी ऐसा बटवारा जिसके फलस्वरूप कुरीतियां फैले; जिसका परिणाम आरक्षण के रूप मे आज भी हम भोग रहे है । अब तथ्य पर आते है । वर्णों को लेकर जो भी बाते शास्त्रों में लिखी गयी उन सबका गलत मतलब निकाल कर लोगो को भ्रमित किया गया । देखिये जितने भी हमारे महान ग्रन्थ रचित हुए है वो कोई किसी सन्त की सोची हुई बाते नही है बल्कि अतीन्द्रिय अवस्था में लिखी हुई रचनाएं है जिनका मकसद समाज में समता लाना था न कि बिखराव ।


गीता में जो चार वर्णों की बात आयी है उसका मतलब इस प्रकार से है । यह साधना में मन की ही चार अवस्थायें है । 

शुद्र :- जब हम नये नये साधना मार्ग में आते है । चाहे हम किसी भी साधना मार्ग में क्यो न हो । तब मन शुरू-शुरू में साधन में नही लगता और हमें भी भटकाता है । वह स्वंय भी दूर भागता है और हमे भी भगाता है । इस वक्त मन बड़ी तेज़ी से कार्य कर रहा होता है । और बड़ी तेज़ी से ही हमारे समाने अच्छे-बुरे बहुत सारे विकल्प पैदा करके हमें भटकाने की कौशिश करता है । तब मन की यह अवस्था शुद्र अवस्था कहलाती है । इस मन को शुद्र कहते है । स्वामी अडगड़ानन्द जी ने अपनी यथार्थ् गीता में इस प्रकार के साधक को ही शुद्र कहा है । प्रकृति के तीनों गुण यहां पर पुरी तरह से कार्यरत होते है ।

वैश्य :- यह अवस्था साधना की दुसरी अवस्था है । जब हम मन की बात न सुन कर साधना में लगे रहते है । तब मन भी साधना में कुछ-कुछ हमारा साथ देने लगता है । तब मन हमारी साधना में अच्छाई-बुराई खोज़ना शुरू कर देता है । तौल-मौल करने लगता है । मन की इस अवस्था को वैश्य कहते है । स्वामी अडगड़ानन्द जी ने अपनी यथार्थ् गीता में इस प्रकार के साधक को ही वैश्य कहा है । प्रकृति के तीनों गुण यहां पर भी पुरी तरह अपना खेल चला रहे है ।

क्षत्रिय :- यहां साधना करते-करते मन प्रकृति के गुणो कें कार्यों का समझना शुरू कर देता है । इन तीन गुणों को कैसे काटना है यह भी सीख लेता है । मन की इस अवस्था क्षत्रिय कहां जाता है । स्वामी अडगड़ानन्द जी ने अपनी यथार्थ् गीता में इस प्रकार के साधक को ही क्षत्रिय कहा है । 

ब्राह्मण :- यह साधना की उच्च अवस्था है । यहां मन, मन नही रहता । विलीन हो जाता है । स्वामी अडगड़ानन्द जी ने अपनी यथार्थ् गीता में इस प्रकार के साधक को ही ब्राह्मण कहा है । यहां प्रकृति के तीनों गुण निष्फल हो जाते है । 



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