Saturday, April 16, 2011

श्री मद मद्भगवद्गीता !

श्री मद मद्भगवद्गीता !

गीता के बारें में मै आपसे बहुत सारी बाते करना चाहता हूं जो मैने अनुभव की है । यकीन मानिये इस महान पुस्तक से मुझे इतना कुछ सिख़ने को मिला । जिसे मै शायद शब्दों में पुरी तरह से ब्यान नही कर सकता । अपने आप में पूर्ण ग्रन्थ है गीता । पर इसे एक-दो बार पढ़ने से कुछ खास नही होता । इस ग्रन्थ को तो कम से कम १०० बार पढ़ने से तो इसके अध्यन की शुरूआत होगी ।

इसके साथ-साथ गीता पर लिखी गई टीकाओं का भी अध्यन करना भी अति आवश्यक है । ऐसा करने से अध्यत्मिकता को लेकर आप के मन जो भी प्रश्न हो वो सब के सब आपके मन में ही हल हो जायेगें । धीरे-धीरे परमात्मा के स्वरूप की भी समझ पड़ने लगेगी । आपको अपने स्वरूप का भी आभास होने लगेगा । यह सब अपने आप ही होगा; आपको बस गीता का अध्यन करते रहना है ।

कर्मयोग आपके जीवन में अपने आप ही रच बस जायेगा । प्रकृति की व उसके तीन गुणों की समझ आने लगेगी । एक शान्ति का आभास होने शुरू हो जायेगा । प्रकृति के तीन गुणो से बचने के तरीके भी अपने आप ही मन में आने लगेंगे ।

स्वामी रामसुखदास जिन्होने साधक सज़ीवनी सृजित की है उनकी गीता पर इस टीका पर मैने एक बात पढी थी जो आज मुझे याद आ रही है कि - जैसे -जैसे साधक का मन परमात्मा की तरफ़ जुड़ता चला जाता है तो इस प्रकृति के सारे वैभव उसका पीछा करना शुरू कर देते है यानि उसका भौतिक जीवन भी खुशहाल बन जाता है । इस बात को मैने अपने जीवन में महसूस किया है ।

बहुत सारे गुण आप के अन्दर आने शुरू हो जाते है ऐसा मैने अनुभव किया है और उन गुणो की वजह से मेरा समाजिक जीवन भी बहुत अच्छा हो गया है । सब अपने आप हो रहा है बस गीता का अध्यन मात्र करने से .. बाते और भी बहुत सारी है .... वो भी बताता रहुगां ।

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