Thursday, March 31, 2011

परमात्मा


परमात्मा !

देखिये परमात्मा कि अगर बात करे तो बहुत ही सूक्ष्म बुद्दि कि आवश्कता है . क्योकि अब बहुत सारी गड़बड़ हो चुकी है महान ऋषियों के समझाने में और हमारे समझने में . बात परमात्मा के स्वरुप की है जिसे समझना बहुत ही जरुरी है तभी बात बन सकेगी, नहीं तो प्रकृति के चक्कर में ही फंसे रह जायेगे. अगर मूर्ति पूजा कि बात करे तो वहा अनेकता है . क्योंकि समझाने वाला समझाना कुछ चाहता था और हम अपनी बुद्दि के अनुसार समझ कुछ गए . 
अभी कुछ समय पहले ही मैं ज्ञानी संत सिंह मसकीन जी को सुन रहा था; वो कह रहे थे कि जिनते भी साज़ हुए है बांसुरी है , तबला है, मंदिर में बजने वाली घंटिया है  और बहुत सारे साज़ है यह सब महान ऋषियों द्वारा अतिन्द्रिये अवस्था में अन्दर सुनी हुई आवाजे है जिन्हें उन्होंने बहार कि दुनिया को समझाने का प्रयास किया. आज हम बांसुरी सुन कर झूमते तो है पर यह झूमना लौकिक है जब कि इसे बताने वाले का मतलब कुछ और था ; जिन लोगो ने अनहद नाद पर अभ्यास किया है वो इस बात को आसानी से समझ सकते है . यानि बताने वाला बताना कुछ चाहता है और समझने वाला अपने ढग से कुछ और समझ लेता  है . 

इसीलिए ही हर एक क्षेत्र में भगवान् कि मुर्तिया भी वहा रह रहे लोगो के चेहरों के अनुरूप ही होती है . उतर भारत में भगवान् नैन नक्श उतर भारतीयों जैसे होगे , दक्षिण भारत में दक्षिण भारतीयों जैसे , जापान में जापानियों जैसे और ब्रिटेन में ब्रितानियो जैसे , वहा कि मूर्ति यहाँ नहीं चल सकती और यहाँ कि मूर्ति वहा नहीं चल सकती . समस्या यह नहीं है , समस्या तो उस सर्वशक्ति मान के यथार्थ स्वरुप को समझने कि है . ऐसा भी नही है कि अन्य धर्मो में संतो ने इसके बारे में कुछ कहा नहीं है , कहा है बाबा नानक ने , कहा है संत बुल्ह्हे शाह ने , कहा है सूफी संत मेवलाना जेलालुद्दीन रूमी ने, कहा है प्रभु यीशु ने, कहा है कबीर ने, कितने संतो का नाम गिनाऊ; लिखते लिखेते  मैं थक जाउगा और पढ़ते पढ़ते आप थक जायेगे . सभी महान धर्मो के महान संतो ने  परमात्मा का  असली स्वरुप बताने की हर संभव कोशिश कि है और बहुतेरो ने समझा भी है . 
हम सबको भी भगवान् के सच्चे स्वरुप को समझ के उस पर ही चिंतन करना है ताकि बरसो से चली आई गड़बड़ का सुधार हो . 
जल्द ही मैं एक बड़े ही सुन्दर लेख "परमात्मा का स्वरुप" के माध्यम से कुछ प्रकाश  डालने कि कोशिश करुगा . ...................

Tuesday, March 29, 2011

कर्म योग पर मेरे विचार ......


कर्म योग पर मेरे विचार ......

बड़ा ही रोचक विषय है कर्म योग और उलझन वाला भी है . कर्मयोग को मै गीता जी के माध्यम से बताने की कौशिश करुगा निम्नलिखित विषयों मे माध्यम से :-

१. आत्मा
२. मनुष्य शरीर
३. कर्म
४. प्रकृति
५. मन
६. पांच विकार (प्रकृति मे विचरण करने वाले विषय)

आत्मा प्रकृति के तीन गुणों द्वारा इस मनुष्य शरीर में स्थापित है और यही तीन गुण ही आत्मा को इस संसार में बाधें रखते है. यह तीन गुण है 
१. सत्तोगुण २. रज़ोगुण ३. त्तमोगुण

कर्म क्यां है - हमारे द्वारा की जाने वाली कोई भी क्रिया वो चाहे शारीरिक हो या मानसिक,  कर्म कहलाती है. वैसे कर्म के होने की शुरुआत सबसे पहले मन में ही होती है. मन हमारे मस्तिक के अन्दर एकत्रित हुई सूचनाओं का इतनी तेज़ी से विश्लेषण करता है कि इस कार्य मे उसका कोई भी सानी नही है. मन द्वारा विश्लेषण की गई सूचनाओं से तुरन्त प्रेरित हो कर हम कर्म करने को बाध्य हो जाते है. हमारे सभी अच्छे या बुरे कर्मो को जन्म मन ही देता है. इसलिए ही सारे संसार में योग की जितनी पद्तियां कार्य कर रही है उनका सबसे पहला व अहम कार्य मन को रोकना ही है. 

अब बात यह पैदा होती है कि मस्तिक तक सूचनाएं पहुचती कहां से है. उसका जवाब है हमारी इन्द्रियां. जीव प्रकॄति में उपलब्ध विषयों को इन इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है और मन द्वारा भ्रमित हो कर प्रकृति के तीन गुणों के चंगुल में फ़स जाता है. यह प्रक्रिया इस प्रकार से है - प्रकृति में उपलब्ध विषय हमारी इन्द्रियों को उलझाते है और इन्द्रियां हमारे मन को उलझाती है मन बुद्दि को और बुद्दि आत्मा को उलझा कर इस मनुष्य शरीर में बान्ध कर कर्म करने को बाध्य करती है . 

तब प्रकृति हमसे अपने तीन गुणों के ज़ोर पर कर्म करवाती चली जाती है और फल स्वरूप हमे यह तीन गुण ही मिलते है,  वो फल कोई भी हो सकता है सात्त्विक, राज़सिक या फिर तामसिक  तब हम यह सोच रहे होते है कि मैने यह कर दिखाया, मैने वो कर दिखाया या फिर उलटा होने पर भगवान को भी दोष दे देते है. जब कि वास्तव में हम एक विशेष प्रणाली के तहत ही कार्य कर, फल प्राप्त कर रहे होते है. मज़े की बात यह है कि प्रकृति ही हमसे कर्म करवाने का काम करती है और प्रकृति ही फल देने का कार्य करती है. प्रकृति के पास वार करने के लिए तीन गुण ही है . आमतौर पर हम कुछ कौशिश करके दो गुण, रज़ोगुण और तमोगुण से तो कुछ हद तक बच जाते है परन्तु तीसरे गुण यानि सत्तोगुण से नही बच पाते. तब हम यह सोच रहे होते है कि हम तो धार्मिक कार्य कर रहे है, सात्त्विक कार्य कर रहे है और फिर फल चाहने लगते है. पत्ता नही हमे क्यूं लगता है कि सात्त्विक कार्यों का फल कुछ ज्यादा ही मीठा होगा जबकि यह भी प्रकृति का एक वार ही है . गीता हमे तीनों गुणो से ऊपर उठने का सन्देश देती है. देखिये एक भी गुण का थोड़ा सा अंश भी मुक्त होने में बाधक बन सकता है. क्योकि आत्मा को इस मानव शरीर मे प्रकृति के यह तीन गुण ही बाधंते है और बिना तीन गुणों को छोड़े आत्मा मुक्त हो ही नही सकती.

यही कर्म योग है. कर्म के द्वारा योग यानि कर्म भी करना और फल की ईच्छा न रखना ही कर्मयोग है. समस्या मन से ही है और खतरा भी मन से ही है. क्योकि हमारे (जीव) और प्रकृति के बीच कार्य प्रणाली चलाने वाली जो प्रक्रिया है वो मन है. ऐसा नही है कि मन कोई बुरी चीज है और न ही मन से डरना चाहिये याद रखिये गीता में कहा गया है कि आत्मा जोकि इन्द्रियां, मन,  बुद्दि से परे है, सूक्ष्म है और बहुत ही शक्तिशाली है. हम आत्मा की शक्ति से कौशिश करके मन पर विजय पा सकते है. 

जरूरत है इस विशेष प्रणाली को समझने की और समझ कर इस प्रणाली के तहत कार्य करने की . जब यह समझ आ जायेगा तब सभी प्रकार के योग अपने आप ही सिद्द हो जायेगे. जब कर्म का बन्धन नही होगा तो प्रकृति आप पर अपना जादू नही चला पायेगी और तब आप और ईश्वर के बीच और कोई नही होगा . गीता कहती है कि कर्म योग से बुद्दि अति सूक्ष्म हो जाती है और फिर थोड़े से ध्यान से भी उस अन्नंत आन्नंद का हिस्सा बना जा सकता है. यह सब कुछ वैज्ञानिक है, तकनीकी है और इसे इसी ढंग से ही समझना होगा तभी बात बन पायेगी.  यह है कर्मयोग .........

आरती - एक वैश्विक वन्दना


आरती

हमारे हिन्दु समाज में एक आरती सभी धार्मिक कार्यों के अन्त मे गायी जाती है. हम सभी हिन्दु भाईओ को इस आरती का ज्ञान है क्योकि  सभी हिन्दु परिवारों मे वार-त्योंहार पर इस आरती का गायन किया जाता है. बड़ा ही अद्धभुत है इस आरती का दर्शन . परमात्मा के बारें सब कुछ ही इस आरती में आ जाता है. बहुत बड़े अनुष्ठान में अगर आप भाग लेने से चूक गये है तो अनुष्ठान के अन्त में बोले जाने वाली आरती में भाग लेकर उस बड़े अनुष्ठान को समझा जा सकता है. 

यह आरती है ॐ जय जगदीश हरे !

अब इस पर विस्तार से चर्चा करते है

ॐ जय जगदीश हरे स्वामी जय जगदीश हरे
भक्त जनों के सकंट, दास जनों के संकट, क्षण में दूर करे ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

वो एक ही जगदीश है, पालन हार है जो सभी के कष्ट व संकट एक ही क्षण में दूर कर देता है ! उसी ॐ रुपी ईश्वर की जय हो .

जो ध्यावें फल पावे, दुख बिनसे मन का ।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

जो इस ॐ रूपी ईश्वर क ध्यान करता है उसके मन के सभी दुख दूर हो जाते है ( यह मन ही सभी दुखो का कारण है ) सुख रुपी सम्पति उसके मन रुपी घर में आ जाती है और उसके तन के भी सभी दुख मिट जाते है .

मात पिता तुम मेरे,  शरण गहुं मै किसकी ।
तुम बिन और ना दूजा,  आस करु मै जिसकी ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

हे ॐ रुपी ईश्वर एक तुम ही तो मेरे माता और पिता हो तुम्हारे सिवा मेरा और कोई नही हो सकता जिसकी मै शरण में जाऊ और जिससे मै किसी भी प्रकार की आशा रखु .

तुम पुरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ।
पार ब्राह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

तुम ही एक परमात्मा हो जोकि सबके मन की बात को जान लेता है । हे महान ईश्वर आप सबके स्वामी है सब कुछ आपके भीतर ही घटित हो रहा है ॥

तुम करूणा के सागर, तुम पालन कर्ता ।
मै मुर्ख खल-कामी, मै सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

हे ॐ रुपी ईश्वर तुम करुणा के सागर हो सभी जीवों की पालना भी तुम्ही करते हो, मै तो एक मुर्ख जीव ही हुं जो इस बात को नही समझ पाया . हे मेरे स्वामी तुम ही मुझ पर करुणा बरसा कर मुझ पर कृपा करो ताकि मै यह बात समझ सकू और तुम्हे पा सकू |

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति ।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मै कुमति ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

हे ईश्वर मै जानता हू कि मै आपको अपनी इन आंखो से नही देख पाता . अर्जुन को तो आपने दिव्य चक्षु दे दिये थे जिससे वो आप को समझ पाया था प्रन्नतु मै यह जरुर जानता हू कि तुम हम सबके प्राण के रुप मे हमारे अन्दर ही विधमान हो . लेकिन आपको किस तरीकें से मिलू यह भी मुझे नही पता . इसलिये हे दया के सागर ! हे हम सबके पालनहारें ! आप ही वो विधि बताओ जिससे मै आपको पा सकू.

दीनबंधु दुख हर्ता, ठाकुर तुम मेरे ।
अपने हाथ दया करो शरण लगाओ, द्वार पड़ा मै तेरे ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

हे ईश्वर आप तो दीन-दुखियों के दुखो को हरने वाले है.  मै आपके पास आया हु प्रभु मुझे अपनी शरण में ले लिजिये .

विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा ।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, ह्र्दय प्रेम जगाओ, सतंन की सेवा ॥ ॐ जय जगदीश हरे !

हे ईश्वर मेरे मन के सभी विषय और विकारो को मिटा दो ताकि मेरे पाप अपने आप ही मिट जाये मेरे मन में भक्ति और प्रेम का संचार हो और मै सभी संत जनो की सेवा में लग जाऊ .

क्या आपको इस आरती के मर्म को समझने पर कही लगता है कि यह किसी धर्म विशेष के लिये है . वास्तव में ही यह एक वैश्विक वन्दना है उस एक मात्र परमात्मा की जो सभी जगह एक है सर्वव्यापी है, अचल है स्थिर है
 ...........

Note: om Jai Jagdish Hare ...Written by pt. Shradha Ram Phillauri ji in 1870

Monday, March 28, 2011

आत्मा क्यां है ?


आत्मा क्यां है ?

बहुत से भाई इस बात को ही नही मानते की आत्मा नाम की कोई वस्तु या शक्ति भी है . देखिये इसे बहुत ही सधारण उदाहरण से समझा जा सकता है . देखिये शरीर तो है ही जो हर किसी को दिख रहा है . लेकिन यह बात भी सच है कि जब कोई व्यक्ति मर जाता है तब भी शरीर तो रहता ही है, परन्तु मृत होता है . जो भी शक्ति शरीर को जीवित बनाती है और उसे कार्य करने के लायक बनाती है, उस शक्ति को ही आत्मा कहते है . 

गीता जी में आत्मा का जो विवरण दिया गया है वो इस प्रकार से है :- 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूत: ॥ (अध्याय २ श्लोक सख्यां २३)

इस आत्मा को शस्त्र नही काट सकते, इसको आग नही जला सकती, इसको जल नही गला सकता और वायु नही सुखा सकता ॥

यानि एक ऎसी शक्ति या वस्तु जिसे काटा न जा सके यानि किसी भी प्रकार का शस्त्र हो या किसी भी प्रकार की तकनीक हो चाहे आज की लेज़र तकनीक भी क्यों ना हो तो भी आत्मा को नही काटा जा सकता. इसको आग नही जला सकती यानि कितना भी तापमान क्यों न हो चाहे तो परमाणु विस्फ़ोट जितना भी तापमान हो तो भी इस आत्मा को नही जलाया जा सकता . इसी प्रकार इसे जल नही गला सकता और वायु भी नही सुखा सकता .

अब आगे चलते है :- 

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ (अध्याय २ श्लोक सख्यां २५)

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहां जाता है ।

यानि यह आत्मा एक अलग प्रकार की शक्ति या वस्तु है जो इस संसार की अन्य सभी वस्तुओं से न्यारी है . बिल्कुल अलग . इतनी अलग कि इसको हम व्यक्त भी नही कर सकते इतनी अलग कि हम इसका चितंन भी नही कर सकते . यानि इस आत्मा के गुण हमारे यहा की किसी भी वस्तु या शक्ति से मेल नही खाते. यह इस प्रकृति के अन्दर की वस्तु नही है और न ही हमारे मन व दिमाग की सीमा के अन्दर आती है . गीता जी में इसीलिये ही स्वयं ने परमात्मा आत्मा को अपना ही अंश बताया है . और इस आत्मा को जान कर ही उस असीम शक्ति परमात्मा में मिलाने को कहा है . 




उतरायण और दक्षिणायन


इस जगत में आत्मा के आवागमन के लिये गीता जी में दो मार्ग बताये गये है . उतरायण और दक्षिणायन 

उतरायण मार्ग :-  

इसे देवयान भी कहते है . इस मार्ग से यात्रा करने वाले जीवों को इस संसार मे वापिस नही आना पड़्ता . इसे मार्ग ज्योतिर्मय मार्ग कहा जाता है . जब सुर्य उतर की ओर यात्रा कर रहा होता है तो उतरायण चल रहा होता है . उतरायण छ: महीनो का होता है . इस बात की पुष्टि महाभारत की एक घटना से होती है जो कि इस प्रकार से है - जब भीष्म पितामह अर्जुन द्वारा छोड़े गये बाणों से बीन्ध गये थे तभी उन्होने देखा की सुर्य दक्षिणायन में है और उतरायण आने में अभी काफ़ी समय बाकि है . तभी उन्होने एक तकिये की मांग की जिसे अर्जुन ने दो बाणों का तकियां बना कर पुरी की. उसके बाद उन्होने श्री कृष्ण के कहने से पाण्डवों को ज्ञान भी दिया और तब उतरायण आने पर ही अपने प्राणो का त्याग किया.

दक्षिणायन मार्ग :-

इसे पितृयान भी कहते है . इस मार्ग से मरकर गये जीव को अपने कर्मों के अनुसार फल भोग कर इस पृथ्विलोक में वापिस आना पड़्ता है . इसे मार्ग कृष्ण मार्ग कहा जाता है . जब सुर्य दक्षिण की ओर यात्रा कर रहा होता है तो द्क्षिणायन चल रहा होता है . द्क्षिणायन भी छ: महीनो का ही होता है .

इन दोनों मार्गो के बारे में गीता के १८ वें अध्याय श्लोक सख्यां २३, २४, २५, २६ में उल्लेख मिलता है. 

Sunday, March 27, 2011

त्राटक और अन्तर्त्राटक


त्राटक और अन्तर्त्राटक

त्राटक का अर्थ होता है किसी वस्तु-विशेष लगातार खुली आँखो से टकटकी लगाकर देखते रहना । त्राटक के अभ्यास से एकाग्रता बड़ती है । इससे मन की बिखरी हुई शक्तियों को एकाग्र कर के मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों को बड़ाया जा सकता है  ।

त्राटक की दों अवस्थायें होती है:-

१. त्राटक या बाह्य त्राटक
२. अन्तर्त्राटक

त्राटक या बाह्य त्राटक

इसमें मन को बाह्य वस्तु-विशेष पर एकाग्र किया जाता है. क्योकि हम बाह्य जगत से अधिक जुड़े होते है तो यह अभ्यास बहुत ही आसान रहता है । मन को एकाग्र करने के लिये किसी एसी वस्तु का चुनाव किया जाता है जो मन अच्छी लगे इसके लिये ॐ, कोई धार्मिक चिन्ह, गुरू या इष्ट देव का चित्र, कोई बिन्दु या फिर मोमबत्ती की लौ में से कुछ भी चुना जा सकता है. इसमें आईने का भी ईस्त्माल भी किया जा सकता है ।

अन्तर्त्राटक

इसका अभ्यास मन को अर्न्तमुख बनाने के लिये किया जाता है । पहले बाह्य त्राटक का अभ्यास किया जाता है तब बाह्य त्राटक का अभ्यास करते समय आँखे बन्द करने पर जो बिम्ब दिखायी पड़ता है उसका इस्तमाल अन्तर्त्राटक में किया जाता है ।

त्राटक का अभ्यास अधिकतम स्थिर आसन में किया जाता है इसका अभ्यास सिद्धासन, सिद्धयोनि आसन में करना श्रेयस्कर होता है । इसे सुखासन या बैठ कर भी किया जा सकता है. त्राटक के अभ्यास के लिये कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार से है:-

१. इसका अभ्यास करते वक्त आँखो को झपकाना नही चाहिये । दृष्टि भी स्थिर होनी चाहिये ।
२. मन को केवल वस्तु या उसके बिम्ब पर ही टिकाये रखना होता है ।
३. इसमें वस्तु को २ फ़ीट की दूरी पर रखा जाता है ।
४. अभ्यास के दौरान जब ध्यान स्थिर हो जाता है तब साक्षी भाव से देखना होता है ।

त्राटक के अभ्यास से अनेक लाभदायक प्रभाव देखने को आते है । इससे स्मरण शक्ति बड़ती है । आँखो की मांसपेशिया मजबूत होती है । इससे आतंरिक ऊर्जा का भण्डार खुल जाता है । भारत में रहस्यमय गुप्त शक्तियां प्राप्त करने के लिये त्राटक का अभ्यास किया जाता है । ईसाइयों में भी प्रतिमाओ, पवित्र चित्रों और धार्मिक चिन्हों पर त्राटक किया जाता है । त्राटक से एकाग्रता बड़ती है क्योंकि इसमें चेतन ऊर्जा को एक बिन्दु की और उन्नमुख किया जाता है तो यह अभ्यास स्वतः ध्यान की और ले जाता है ।

ध्यान क्या है ?

ध्यान क्या है ?
छोटी सी बात लेकर शुरुआत करते है . जो हम सब के साथ रोजाना घटित होती है . मैं यह समझाना चाह रहा हूँ कि ध्यान के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते . हमारी सभी इन्द्रियां कान, नाक , मुहँ, आंखे इत्यादि बिना ध्यान के कार्य नहीं कर सकती जैसे कि मान लीजिये कि आप एक सुंदर बगीचे में खड़े है और आपकी आंखे बड़ा ही सुंदर दृश्य निहार रही है और तभी आपका ध्यान आपके घर पर चला जाता है अब आपको बगीचे के सुंदर दृश्य कि बजाये आपका घर दिखाई देने लग जाता है जब कि आप अभी भी उस बगीचे में ही है और आपकी आंखे के सामने अभी भी वही सुंदर दृश्य ही है परन्तु ध्यान नहीं है . इसी प्रकार अन्य इन्द्रिया भी ध्यान के साथ ही काम करती है ध्यान के बिना कोई भी इन्द्री अपना कार्य नहीं कर सकती . ध्यान हमारे जीवन की एक बहुमूल्य शक्ति है जिसके बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते . स्वामी राम कृष्ण मठ के रित्जानंद कहते है कि "ध्यान हमारे पास एक अति बहुमूल्य शक्ति है जिसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए हमें चाहिए कि जिसकी सहायता से हम इस संसार में जीते है उस ध्यान को एकाग्रता की शक्ति से अपने विचारो पर प्रभुत्व स्थापित कर अपने वास्तविक स्वरुप विशुद्ध चैतन्य को उपलब्ध हो सके "

मन्त्र ध्यान


मन्त्र ध्यान
मन्त्र क्याँ है ?

ईश्वर शब्दोच्चरण करता है और उसकी वाणी से जगत की सृष्टि होती है । यह एक अत्यन्त पुरातन सिद्धान्त है जिसे निरीश्वरवादी जैन और बोद्ध धर्मो को छोड कर सभी धर्म स्वीकार करते है. धर्म शास्त्रो में सबसे पुरातन वेदों में कहा गया है, "ब्रह्म सर्वप्रथम विधमान था । दुसरा शब्द था जो उसके साथ था; शब्द ब्रह्मा है" शब्द को उससे दुसरा कहा गया है क्योकि पहले वह ब्रह्मा में अव्यक्त रूप से रहता है और बाद में शक्ति के रूप में उससे प्रकट होता है । इस प्रकार शब्द ब्रह्मा की शक्ति है जो शक्तिमान के साथ एक है.

ईसा की चतुर्थ गाथा का प्रारम्भ इस प्रकार होता है, "प्रारम्भ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था"

सृष्टि के क्रम में रूप के पूर्व शब्द की अभिव्यक्ति होती है । अतः प्रत्येक शब्द एक-एक रूप विशेष का उत्तरदायी है । एक छोटे से प्रयोग से हम यह समझ सकते है - एक ध्वनि सयंत्र को लो और उसे एक तख्ते पर बिखरे बारीक रेत कणों की हल्की सी परत के निकट बाजाओ । आप देखेगें की रेत के कण विभिन्न ज्यामितीय आकार धारण कर लेगें । इसी प्रकार मन्त्र भी स्पन्दन है और उनमें रचनात्मक और संहारात्मक दोनो ही प्रकार की शक्तियां होती है. रचनात्मक लाभ दायक मन्त्र भी होते है व संहारात्मक हानिकारक मन्त्र भी होते है.

भगवद्दनाम या कोई शब्द समूह मन्त्र कहलाता है. मन्त्र परमात्मा का गुढ़ शब्द-प्रतीक होता है - जिसके मनन से पाप से मुक्ति, स्वर्गापवर्ग तथा चतुर्वर्ग की प्राप्ति है वह मन्त्र कहलाता है. चतुर्वर्ग से अभिप्राय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है.

पुरातन काल से ही भारत में ऋषियों द्वारा मन्त्रों का प्रयोग होता आया है परन्तु ऋषियों ने इनकी रचना नही की थी, अपितु अतीन्द्रिय अवस्था में उनका अविष्कार किया था इन मन्त्रों को किसी भाषा के शब्दों की तरह जोङ जोङ कर बनाया नही गया था । हिन्दु जाति के आचार्यों ने अध्यात्मिक उत्कर्ष की अवस्था में इनका अविष्कार किया था.

मन्त्र में अक्षर ध्वनि-विशेष के क्रम में सजाए गए होते है । ये अक्षर इन ध्वनियों के प्रतीक होते है । 

इस ध्यान मे साधक एक मन्त्र को चुन लेता है आमतौर पर यह मन्त्र गुरू द्वारा दिया जाता है. इस मन्त्र को १०८ मनको की एक माला के साथ बोला व जपा जाता है. इसमे सख्यां का खासतौर पर ध्यान रखा जाता है. 

इसमें मन्त्र आरम्भ में बैखरी जाप करना होता, बैखरी मतलब मन्त्र को बोल कर जपना होता है ताकि मन इधर उधर ना भटके और उसके बाद मन्त्र का मानसिक जाप करना होता है. यहां मन्त्र के उच्चारण का खासतौर पर ध्यान रखना होता है. उच्चारण  शुद्ध व स्पष्ट होना चाहिये.

गुरू मन्त्र को हमेशा गुप्त रखा जाता है. 

जप का अभ्यास ध्यान के किसी भी आसन में जैसे पद्दासन, सुखासन या सिद्धयोनि आसन मे बैठ कर किया जा सकता है. इसमें दाहिने हाथ में माला होनी चहिये व हाथ घुटनो पर टिका होना चाहिये माला भूमि को छुती हुई होनी चाहिये. माला को लेकर दाहिना हाथ वक्ष स्थल के पास भी रह सकता है. आमतौर पर माला को भी एक थैली मे रखा जाता है. माला रूद्राक्ष की या तुलसी की हो सकती है. दाहिने हाथ कि मध्यमा उँगली और अँगुठे से माला के मनके को घुमाया जाता है. मन्त्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की और मुहँ करके किया जाता है. 

मन्त्र जप करके चित्त शुद्ध होता है व पवित्र होता है. जप करते समय अवचेतन मन के छिपे हुए संस्कार विभिन्न प्रतिबिम्बों, चित्रों, द्रुश्यों और विचारों के रूप में चेतन मन के तल पर आते है. जिन्हे तटस्थ होकर देखना व मन्त्र जाप में तल्लीन रहना होना ही मन्त्र ध्यान का आवश्यक अंग है.

आभार : ध्यान ( राम कृष्ण संघ के सन्यासियों द्वारा विवेचन) मन्त्र विज्ञान स्वामी घनानन्द

ध्यान तन्त्र के आलोक में - बिहार स्कूल आफ़ योगा 

Saturday, March 26, 2011

देवता गण - कुछ श्रीमद भगवद गीता से !

देवता गण - कुछ श्रीमद भगवद गीता से !

गीता अध्याय ७ श्लोक २० (हिंदी अनुवाद)

उन-उन भोगों कि कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओ को भजते है अथार्त पूजते है ||
गीता अध्याय ७ श्लोक २१ (हिंदी अनुवाद)

जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरुप को श्रधा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त कि श्रधा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ ||

गीता अध्याय ७ श्लोक २२ (हिंदी अनुवाद)

वह पुरुष उस श्रधा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निसंदेह प्राप्त करता है ||

गीता अध्याय ७ श्लोक २३ (हिंदी अनुवाद)

परन्तु उस अल्प बुद्धि वालो का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओ को पूजने वाले देवताओ को प्राप्त होते है और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजे अंत में वे मुझको ही प्राप्त होते है ||

नोवें अध्याय में भी कुछ श्लोक देवताओ कर कहे गए है जो की इस प्रकार है -
गीता अध्याय ९ श्लोक २३ (हिंदी अनुवाद)
हे अर्जुन ! यधपि श्रधा से युक्त जो सकाम भक्त दुसरे देवताओ की पूजते है, वे भी मुझे ही पूजते है; किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अथार्त अज्ञान पूर्वक है ||

गीता अध्याय ७ श्लोक २४ (हिंदी अनुवाद)
क्योकि सम्पूर्ण यज्ञो का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ ; परन्तु वे मुझ परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते; इसी से गिरते है अथार्त पुनर्जन्म को प्राप्त होते है ||

गीता अध्याय ७ श्लोक २५ (हिंदी अनुवाद)
देवताओ को पूजने वाले देवताओ को प्राप्त होते है' पितरो को पूजने वाले पितरो को प्राप्त होते है, भूतो को पूजने वाले भूतो को प्राप्त होते है और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते है | इसीलिए मेरे भक्तो का पुनर्जन्म नहीं होता !

Thursday, March 24, 2011

स्वर योग


स्वर योग
स्वर योग क्याँ हैं.
स्वर योग से हमारा अभिप्राय नसिकाओं में विचरने वाले स्वासँ से है । अगर हम हमारी नासिका के दोनों छिद्रो में विचरने वालें स्वासों पर थोड़ा ध्यान केन्द्रित करें तो निम्नलिखित तीन बातें सामने आती है:-
१. कभी स्वास बायीं तरफ से चल रहा होता है जिसे हम बायाँ स्वर कहेगें ।
२. कभी स्वास दायीं तरफ से चल रहा होता है जिसे हम दायाँ स्वर कहेगें ।
३. कभी स्वास दोनों तरफ चल रही होती हैं जिसे हम शून्य स्वर कहेगें ।
हमारे शरीर में मुख्य रूप से तीन नाड़ीयों में प्राण विचरन करता है ।
१. इड़ा
२. पिगलां
३. सुषम्ना
अब हम इन तीनों नाड़ियों की व इनमें विचरने वाले प्राण की विस्तार से चर्चा करेगे ।
इड़ा नाड़ी
जब स्वास बायी तरफ से चल रहा होता है तो इड़ा का प्रवाह हो रहा होता है । इड़ा का सबन्ध चन्द्र्मा से है इसको चद्र नाड़ी भी कहते है. इसका आरम्भ मूलाधार चक्र से ही होता है यह मूलाधार चक्र के बायी और से होती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहद, विशुद्धि नामक चक्रों से होती हुई आज्ञा चक्र में समां जाती है। यह शीतल नाड़ी कहलाती है. यह ऋण आवेशित होती है ।
पिगला नाड़ी
जब स्वास दायीं तरफ से चल रहा होता है तो पिगला का प्रवाह हो रहा होता है । पिगला का सबन्ध सूर्य से है इसको सूर्या नाड़ी भी कहते है । इसका आरम्भ मूलाधार चक्र से ही होता है यह मूलाधार चक्र के दायीं और से होती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहद, विशुद्धि नामक चक्रों से होती हुई आज्ञा चक्र में समां जाती है । यह उष्ण नाड़ी कहलाती है. यह घन आवेशित होती है ।
सुषम्ना
जब स्वास दोनो नासिकाओ में एक समान रूप से चल रहा होता है तो सुषम्ना प्रवाहित हो रही होती है । इसे शून्य स्वर भी कहते है. यह मूलाधार चक्र के मध्य से होती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहद, विशुद्धि नामक चक्रों के भी मध्य होती हुई आज्ञा चक्र में समां जाती है । इस पर कोई आवेश नही होता ।
इस प्रकार हम नासिका के दोनों छिद्रो में प्रवाहित होने वाले प्राण का पता लगा कर स्वर का पता लगा सकते है ।
अब तत्वो की बात करते है । हिन्दु शास्त्रों के अनुसार हमारा शरीर पाँच तत्वो से मिल कर बना है । जोकि निम्नलिखित है:-
क) पृथ्वि तत्व
ख) अग्नि तत्व
ग) जल तत्व
घ) वायु तत्व
ड़) आकाश तत्व
हर समय इन तत्वों में से कुछ तत्व प्राण के साथ साथ रह्ते है । आमतौर पर एक और विशेष तौर पर दो तत्व भी मौजूद रह सकते है । इन तत्वो की मौजूदगी का आभास कई प्रकार से किया जा सकता है । और इस कला का प्रयोग अपनी आम जिन्दगी के साथ साथ अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिये किया सा सकता है। इस कला के माध्यम से हम अपने दैनिक क्रिया कलापों को भी काफ़ी हद तक समझ सकते है ।
तीन अलग नाड़ियों के साथ विभिन्न तत्वों के रहने से मनुष्य शरीर पर व विचारों पर अलग-अलग प्रकार का असर पड़ता है । इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है:-
पिगंला नाड़ी के साथ विभिन्न तत्वों का होना:-
जब पृथ्वि तत्व पिगंला के साथ प्रवाह हो रहा होता है तब यदि हम कोई भी कार्य करेंगे तो वह कार्य यकिनन सफ़ल होगा ही । जल तत्व के साथ कार्य सफ़ल होने की सम्भावना तो पुरी होती है पर कुछ समय के लिये । अग्नि, वायु व आकाश तत्वो का पिगंला के साथ होना भौतिक कार्यो के लिये विनाशकारी माना जाता है .
इड़ा नाड़ी के साथ विभिन्न तत्वों का होना:-
जब पृथ्वि तत्व इड़ा के साथ प्रवाह हो रहा होता है तब यदि हम कोई भी कार्य करेंगे तो वह कार्य यकिनन सफ़ल होगा ही । जल तत्व के साथ कार्य सफ़ल होने की सम्भावना तो पुरी होती है पर कुछ समय के लिये । अग्नि, वायु तत्वो का इड़ा के साथ होना भौतिक कार्यो के लिये माध्यमिक माना जाता है् ।
सुषम्ना नाड़ी के साथ विभिन्न तत्वों का होना:-
जब सुषम्ना नाड़ी प्रवाह हो रही होती है और कोई भी तत्व प्रवाहित कर रहा हो तब कोई भी भौतिक कार्य नही करना चाहिये । क्योकिं इस समय कोई भी भौतिक कार्य सिद्ध होगा ही नही । एक योगी के लिये सुषम्ना का प्रवाह होना इस बात का सिग्नल है कि यह समय है ध्यान लगाने का, परमात्मा से बात करने का । जब सुषम्ना के साथ आकाश तत्व प्रवाह हो रहा होता है एक आनन्द की लहर को एक योगी महसूस करता है और इस वक्त जो भी प्रश्न मन में होता है उसका जवाब भी अपने आप ही मिल जाता है । पर ऐसा कुछ सैकेन्ड के लिये होता है । एक योगी एक लिये यही स्वर साधना है सुषम्ना के साथ आकाश तत्व के समय को बढाते जाना व उस परम से असीमित आनन्द का अनुभव करना ।
यह तीन प्रकार की ऊर्जा +ve पिगंला -ve इड़ा व शून्य ऊर्जा सुषम्ना सृष्टि की प्रत्येक कृति में विधमान है । ऊर्जा के यह तीन पहलु ही विभिन्न अनुपातो में मिलकर प्रकृति को सृजन करने को सक्षम बनाते है । यानि प्रकृति इन तीन प्रकार की ऊर्जा के माध्यम से सृजन करती है और ऊर्जा की मात्रा उस विशेष रचना की विशेषता बताती है ।
अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेतें है ।
विज्ञान के अनुसार हमारें mind के दो गोलार्द्ध या hemisphere होते है; दायां गोलार्द्ध (Right Hemisphere) व बायां गोलार्द्ध (Left Hemisphere) । दायां गोलार्द्ध (Right Hemisphere) मनुष्य शरीर के बायें भाग (Left part of the body ) को नियन्त्रित करता है | बायां गोलार्द्ध (Left Hemisphere) मनुष्य शरीर के दायें भाग (Right part of the body ) को नियन्त्रित करता है । जब इड़ा नाड़ी प्रवाहित हो रही होती है तब दायां गोलार्द्ध (Right Hemisphere) काम कर रहा होता है व जब पिगला नाड़ी प्रवाहित हो रही होती है तब बायां गोलार्द्ध (Left Hemisphere) काम कर रहा होता है । प्रत्येक गोलार्द्ध विभिन्न प्रकार की भावनायें उतपन्न करनें को उतरदायी होता है । कुछ Neurologists दायें गोलार्द्ध् (Right Hemisphere) को उदास व बायें गोलार्द्ध (Left Hemisphere) को खुशी की भवनाओं से वर्णित करते है । ऐसा भी देखा गया है कि सकारात्मक भावनायें बायें गोलार्द्ध (Left Hemisphere) को सक्रिय कर देती है व नकारात्मक भावनायें दायें गोलार्द्ध (Right Hemisphere) को सक्रिय कर देती है ।
बायां गोलार्द्ध (Left Hemisphere) आक्रामक प्रतिक्रिया करता है व दायां गोलार्द्ध (Right Hemisphere) एक प्रकार की निष्क्रिय प्रतिक्रिया करता है ।
निष्कर्ष : - स्वर योग अद्धभुत है भौतिक जीवन के लिये भी व आध्यात्मिक जीवन के लिये भी । एक योगी स्वर साधना है सुषम्ना के साथ आकाश तत्व के समय को बढाते जाना व उस परम से असीमित आनन्द का अनुभव करना ।

भारतीय ग्रन्थ और आज का विज्ञान

भारतीय ग्रन्थ और आज का विज्ञान 

आज हम पुरे विश्व में जिस बल बूते पर जाने जाते है वो है हमारा अध्यात्मिक ज्ञान . आज हमारे संत समस्त विश्व को अध्यात्मिक ज्ञान दे रहे है ओर सारा संसार हमारे इस ज्ञान का कायल है . इसलिए ही सारा का सारा संसार आध्यात्मिकता की खोज में भारत ही भागता है . ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि हमारे पास एक अध्यात्मिक विरासत है हमारे प्राचीन ग्रंथो के रूप में . जो हमारे भारत वर्ष के महान ऋषियों ने रचे थे . यह कोई तथ्यों पर आधारित कोई खोज की हुई रचनाये नहीं थी बल्कि यह तो अतीन्द्रिय अवस्था में उन महान ऋषियों का किया हुआ अविष्कार था जो की आज भी उतना ही सटीक है जितना उस समय था . हमारे ग्रन्थ इतने ज्यादा सार्थक है कि आज भी जो वैज्ञानिक खोजे हो रही है उनका विवरण हमारे ग्रंथो में विधमान है .

मैं आपसे आज के Physics Scientist Stephen Hawkins की समय के बारे में की हुई खोज की बात कर रहा हू Stephen Hawkins कहते है की अगर कोई यान प्रकाश की गति के आस पास किसी भारी पिण्ड के चारो ओर चक्कर कटे तो उसमे बैठे हुए लोगो के लिए समय धीरे चलने लगेगा . अगर यह यान 5 साल तक भारी पिण्ड के चारो ओर चक्कर लगता रहता है तो उसके लिए तो 5 साल बितेगे परन्तु बाहरी दुनिया में 20 साल बीत चुके होंगे . 

यानि ऐसा भी संभव है की हमारे आस पास एक ओर दुनिया भी चल रही हो . यही हमारे प्राचीन ग्रन्थ योग  वसिष्ठ में बताया गया है यदि आप इस महान ग्रन्थ का अध्यन करे तो इसमें लीला की कहानी है इस कहानी के माध्यम से यह बताया गया है की ब्रहमांड के अन्दर ब्रहमांड चल रहा है . ओर भी बहुत कुछ इस ग्रन्थ में बताया गया है  जोकि Stephen Hawkins जैसे महान वैज्ञानिक की बातो से हू बहू है . 

ओर भी बहुत सी इसी बाते है जो मैं समय समय पर आप के साथ बाटता रहूगा. लेकिन इस लेख में माध्यम से मैं आपसे एक प्रार्थना करना चाह रहा हू की आप आने वाली हमारी पीढ़ी को इन ग्रथो को पढने के लिए उत्साहित करे अपने बच्चो को अपने महान ग्रंथो की ताकत के बारे में बता कर उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे ताकि इन महान ग्रंथो में छुपी हुई ताकत को निकल कर समाज का भला किया जा सके .... कर्मश : .... 

गीता जी पर मेरे अनुभव

गीता जी पर मेरे अनुभव 

मैंने कोई ५ साल पहले इस ग्रन्थ का अध्यन करना शुरू किया था | हुआ यह था की मैं एक विश्व विख्यात पुस्तक " Autobiography of a Yogi" में एक बात पढ़ी थी की श्री लाहिरी महाशय गीता जी के एक श्लोक पर ही कई कई दिन चर्चा करते थे तब गीता जी को जानने की इच्छा हुई की ऐसा क्या है इस पुस्तक में . 

मैंने धीरे धीरे इस ग्रन्थ का अध्यन करना शुरू किया शुरू में समझने में बहुत ही कठनाई आई | फिर अच्छे अच्छे टीकाकारों की रचनाओ का अध्यन करना शुरू किया . कुछ कुछ समझ आने लगा और इस प्रकार से गीता जी के साथ यात्रा चलती रही और अब भी चल रही है. 

ज्यादा कुछ शायद समझ न भी आया हो परन्तु ईश्वर के सच्चे स्वरुप की समझ आई , प्रकृति और ईश्वर में अन्तर समझ आया ! और भी काफी ऐसी बाते समझ में आई जिनका पहले से बिकुल ज्ञान नहीं था . 

सबसे बड़ी बात यह हुई की मेरी समझ अपने आप ही काफी सूक्ष्म हो गयी . जिससे अन्य ग्रंथो का और अन्य धर्मो का व विभिन्न सम्प्रद्यो का  सूक्ष्मता से अवलोकन करना भी अपने  आप आ गया !

जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण  आया !  पहले दुनिया को कुछ कर दिखाने की जो आसक्त भावना थी वो आसक्त रहित होने लगी . ऐसा धीरे धीरे होने लगा . सबसे बड़ी बात यह हुई की बुद्दि सूक्ष्म होने लगी . प्रकृति की कार्य प्रणाली नज़र आने लगी . 

मेरी नज़र में जो कोई भी साधक अध्यात्मिक मार्ग में यदि उन्नति करना चाहता हो उसे कम से कम २०० बार गीता जी को पढना चाहिए और जिनती भी हो सके गीता जी पर लिखी हुई टीकाए अवश्य पढनी चाहिए और उसके बाद लगातार गीता जी का अध्यन करते रहना चाहिए . 

मेरा अध्यन चल रहा है और चलता रहेगा . गाँधी जी ने गीता जी को माँ का दर्ज़ा दिया है उन्होंने गीता जी पर जो टीका लिखी है उस पुस्तक का नाम भी 'गीता माता' है. गीता जी वास्तव में ही हमारी अध्यात्मिक माता है जो हमें हमारे अध्यात्मिक लक्ष्य का मार्गदर्शन करती है . 




Wednesday, March 23, 2011

अर्जुन का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न


अर्जुन का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न

गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कुरूक्षेत्र के मैदान यानि युद्ध भुमि में देते हैं । जहां भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी बने है। युद्ध क्षेत्र में जहां दोनो सेनाएं आमने-सामने है वहां अर्जुन अपने सारथी भगवान श्री कृष्ण को अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले जानें को कहते है । रथ को दोनो सेनाओं के मध्य ले जाने के बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध की अभिलाषी कौरव सेना को देखने के लिये कहते है ।

अर्जुन कौरव सेनां की ओर देखते है जहां उनके तात भीष्म पितामह खडे है, गुरू द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, चाचे, मामे, ताऊ, भाई व अन्य सगे सबन्धी खडे है । उन सबको देखकर अर्जुन का मन विचलित हो जाता है वो घबरा जाते है वो कहते है कि मै कैसे भीष्मपितामह,गुरू द्रोणाचार्य पर बाण चलाऊ; ये दोनों ही मेरे पूजनीये है. अर्जुन कहते है कि युद्ध अपनी रक्षा के लिये या फिर अपनों को लाभ पहुचाने के लिये किया जाता है, पर यहां तो अपनो से ही युद्ध करना है ।

फिर अर्जुन युद्ध से होने वाले विनाश की बात करते है । इस प्रकार से तरह-तरह की बातें करके अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को युद्ध के लिये मना कर देते है व मन में उदासी लिए आखों में आँसू भर धनुष व बाणों को छोड कर रथ के पिछ्ले हिस्से मे बैठ जाते हैं ।

भगवान श्री कृष्ण जो अब तक अर्जुन की सभी बातें ध्यान से सुन रहे है, सब कुछ सुनने व देखने के बाद हँसते हुए अर्जुन को गीता का उपदेश देना प्रांरम्भ करते है । गीता का उपदेश दुसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से शुरू होता है , पर अर्जुन का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न तीसरे अध्याय के ३६ वें श्लोक मे है; जहां अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पुछ्ते है :

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः ।
अनिच्छ्त्नपि बाष्णेय बलदिव नियोजितः ॥ ( अध्याय ३ श्लोक न: ३६ )

अर्थात : हे कृष्ण । तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है । 

गीता का उपदेश दुसरे अध्याय के ११ वें श्लोक से शुरू होता है और अर्जुन का प्रश्न ३६ वें श्लोक पर है यानि इस बीच २५ श्लोक बीत चुके है, भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच बहुत सारी वार्ता हो चुकी है ।  

११ वें श्लोक से पहले अर्जुन विषादयुक्त है, अश्रुपूर्ण है, दुःखी है, परेशान है वो युद्ध में अपनो को मारना नही चाहता । 

भगवान शुरूआत करते है आत्मा से;  अजर, अमर, सनातन आत्मा । भगवान समझाते है कि इस देह मे यह जीव सदा ही अवध्य है । 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्र्चनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥  ( अध्याय २ श्लोक न: १९ )

अर्थात जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा इसको मरा मानता है, वे दोनो ही नही जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव मे न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आत्मा के बारें मे बहुत सारी बाते बतलाते है जो बडी ही विचित्र है अर्जुन बडे ही ध्यान से सारी बाते सुन रहा है और समझने की कौशिश कर रहा है । फिर भगवान अर्जुन को लोक कीर्ति व लोक निन्दा की बात समझाते है। फिर कर्मयोग के बारे मे चर्चा करते है । अर्जुन को आसक्ति रहित होकर कर्म करने का उपदेश देते है । समबुद्धि से युक्त्त होकर यानि सुखः व दुखः को समान समझकर फलेच्छा का त्याग कर समत्वरूप से कर्म करने को कहते है । कर्मबन्धन व कर्मबन्धन  से छूटने के उपाय बताते है । समत्व योग के बारे मे बताते है ।

श्री कृष्ण कहते है :

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माघोगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ( अध्याय २ श्लोक न: ५० )

अर्थात समबुद्धिअयुक्त्त पुरूष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त्त हो जाता है । इससे तु समत्वरूप योग मे लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मों मे कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूट्ने का उपाय है ।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छ्न्त्यनामयम् ॥    ( अध्याय २ श्लोक न: ५१ )

अर्थात क्योंकि समबुद्धि से युक्त्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते है ।

श्री कृष्ण बोल रहे है अर्जुन सुन रहा है । अर्जुन को बात कुछ-कुछ समझ आने लगी है । अर्जुन को समझ आ गया है कि यह शरीर नाशवान है आत्मा अविनाशी है । शरीर मरता है पर आत्मा नही मर सकता और न ही आत्मा को मारा जा सकता । समत्वरूप योग की बात भी अर्जुन को समझ आ रही है । अर्जुन समझ रहा है कि समत्वरूप योग से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है । अर्जुन अब परमात्मा से नित्य सयोग का आशय भी समझना चाहता है । इसीलिय ही अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पुछ्ता है :

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥ ( अध्याय २ श्लोक न: ५४ )

अर्जुन बोले - हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरूष का क्या लक्षण है ? वह स्थिर बुद्धि पुरूष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

उत्तर मे भगवान स्थिरबुद्धि पुरूष के लक्षणों के बारे मे बताते हैं कि स्थिरबुद्धि पुरूष कामना रहित, राग-द्वेष रहित, दुखः-सुखः मे एक समान होता है, स्थिरबुद्धि पुरूष की इन्द्रियां उसके वशं मे होती है व उसका अन्तःकरण शुद्ध होता है । 

अब गीता का तीसरा अध्याय शुरू होता है । अर्जुन कर्म योग व ज्ञान योग को समझने की कौशिश कर रहे है । भगवान कर्म योग  को विस्तार से समझाते है । कर्मो के नियम समझाते है । प्रकृति व प्रकृति के नियमों को समझाते है । देवताओं की, यज्ञ की और फिर सृष्टि चक्र की बात बताते है । कर्मयोग द्वारा ईश्वर प्राप्ति की बात करते है । यहा भगवान महान ज्ञानी राजा जनक का उदाहरण देते हैं जिन्होने कर्म के द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी । श्री कृष्ण समझाते है कि सभी प्राणी प्रकर्ति के तीन गुणों से प्रेरित होकर कर्म करते है परन्तु जीव अपने अहम के कारण स्वयं को कर्ता समझ बैठता है लेकिन ज्ञानी पुरूष त्रिगुणात्मक प्रकर्ति को समझता हुआ कि गुण ही गुणों मे बरत रहे है, ऎसा समझकर उनमें आसक्त्त नही होता ।

अर्जुन अब तक बहुत सारी बाते समझ चुके है । अर्जुन आत्मा - परमात्मा के गुढ विषय को समझ चुके है । अर्जुन समझ चुके है कि मनुष्य का जन्म ईश्वर प्राप्ति के लिय हुआ है और परमात्मा प्राप्ति ही मनुष्य जन्म का एक मात्र लक्ष्य है । बाकि सब कार्य अपने मूल उद्देश्य से भटक कर  मनुष्य प्रकर्ति के गुणों द्वारा वशींभूत हो कर करता है । और पाप का भागी बनता है इसीलिये ही अर्जुन पुछता है कि :   

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः ।
अनिच्छ्त्नपि बाष्णेय बलदिव नियोजितः ॥ ( अध्याय ३ श्लोक न: ३६ )

अर्थात : हे कृष्ण । तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है । 

यानि मनुष्य जन्म ही जब ईश्वर प्राप्ति के लिये मिला है तो फिर क्यों नही हर कोई सीधा ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल पड्ता, वो कोनसी एसी शक्त्ति है जो उसके कार्य मे बाधक बनती है ? कौन उसको भटकाता है ? कौन उसको रोकता है ? 

अर्जुन का यह प्रश्न मनुष्य जीवन की बहुत बडी एकमात्र सच्चाई है ? यही प्रश्न हम सब को अपने आप से पुछना चाहिये कि " मैं किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण कर रहा हूँ - मै क्यों नही ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल रहा ? 

यह बडा ही सुन्दर प्रश्न है । इसका उत्तर भगवान श्री कृष्ण जो देते है - वो बडा ही वैज्ञानिक है और सरल भी है । जोकि हर प्राणी को समझना जरूरी है ।

काम एष क्रोध एष रजोसमुभ्दवः ।
महाशनो महापाप्मा विध्दयेनमिह वैरिणम् ॥  ( अध्याय ३ श्लोक न: ३७ )

अर्थात : श्री भगवान बोले - रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगो से कभी न अघाने वाला और बडा ही पापी है, इसको ही तु इस विषय मे वैरी जान ।

देखिए इस प्रश्न के अन्दर ही प्रकर्ति का विज्ञान छिपा है । इसको इस प्रकार से समझा जा सकता है । प्रकर्ति, जीव और परमात्मा । जीव परमात्मा का अंश है और प्रकर्ति वो वातावरण है जहां परमात्मा के बारे मे जाना जा सकता है । प्रकर्ति के तीन गुण है, सत्तोगुण, रजोगुण व त्तमोगुण जो इस वातावरण का सचांलन करते है ।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेष वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकर्तिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥ ( अध्याय १८ श्लोक न: ४० )

अर्थात : पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी एसा कोई भी सत्त्व नहीं है जो प्रकर्ति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हों. 

कामना जो कि रजोगुण से पैदा होती है. अब जैसे ही कामना पैदा हुई तो रजोगुण का काम शुरू हो गया, कामना यदि किसी कारण वश पुरी नही हुई तो क्रोध आ जाता है यानि कामना पुरी न होने पर त्तमोगुण का कार्य शुरू हो गया । और यदि कामना पुरी हो गई तो ममता पैदा हो गई जिससे फिर मोह पैदा हो गया अब यहां सब रजोगुण का कार्य आरम्भ हो गया जोकि कर्म फल से बान्धता है । यानि जब तक आप प्रकर्ति के गुणो से छेड्छाड करते रहेगें ये गुण आपको उतर देते रहेगें और आप कर्म फल के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्क र लगाते रहेगें । भगवान इन गुणो से सर्वथा अलग है । अगर ईश्वर को पाना है तो इन तीनों गुणों को छोडना पडेगा । जब मनुष्य प्रकर्ति के इन तीन गुणो से ऊपर उठ जाएगा तो प्रकर्ति की फल देने की क्रिया समाप्त हो जाएगी । मन शान्त हो जाएगा, अन्तःकरण शुद्ध हो जाएगा और जीव स्वयं ही ईश्वर को प्राप्त हो जाएगा । 

प्रभु के भक्त


प्रभु के भक्त 

श्रीमद्दभगवदगीता में चार प्रकार के भक्तो का उल्लेख आता है जोकि इस प्रकार से है. 


चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुक्रतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ 
(अध्याय ७ श्लोक १६)

हे भरतवशियों मे श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी एसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं.

इस प्रकार चार प्रकार के भक्त :-

१. अर्थार्थी 
२. आर्त
३. जिज्ञासु
४. ज्ञानी

१. अर्थार्थी 

अर्थार्थी भक्त उसको कहा जाता है जोकि अर्थ या धन के लिये भगवान को याद करते है. लेकिन उनका भगवान पर पुरा विश्वास होता है. वो इस कार्य को पुरी लगन के साथ करते है. उनको यह मालूम होता है कि केवल के मात्र भागवान के सिवाय उनकी यह इच्छा और कोई भी पुरी नही कर सकता है. शास्त्रों में इसके लिये भक्त ध्रुव का उदाहरण आता है; कि कैसे भक्त ध्रुव ने एक मात्र भगवान को ही अपना सब कुछ मानते हुए सच्ची श्रधा के साथ केवल अर्थ को लक्ष्य बना कर भगवान की स्तुति की थी और भगवान को प्रकट होना पड़ा था.

२. आर्त 

आर्त भक्त वो होता है जो भगवान पर विश्वास तो रखता है पर अपने इस विश्वास का जरूरत पड़्ने पर प्रयोग करता है. महाभारत में इसका एक उदाहरण द्रोपदी का आता है. द्रोपदी चीर हरण के समय जब द्रोपदी  को कहीं से भी सहायता नही मिलती तो वो अपने इष्टःदेव भगवान श्री कृष्ण को सच्चे मन से याद करती है तब वहां भगवान प्रकट होते है व अपना कमाल एक चमत्कार के रूप में दिखातें है. 

अहाँ भी सच्ची लगन और पुरा विश्वास काम करता है.

३. जिज्ञासु

जिज्ञासु भक्त वो होता है जिसे भगवान के सच्चे स्वरूप को जाननें की इच्छा होती है. वो हर समय परमात्मा के उस भगवान के सच्चे स्वरूप को जाननें का प्रयत्न करता रहता है. 

यानि जो भी भक्त सच्चे मन से भगवान को जानना चाहता है वो जिज्ञासु भक्त की श्रेणी में आता है.


४. ज्ञानी 

   ज्ञानी भक्त व भगवान में कोइ फर्क नही होता . जो उसे पा लेता है, जो उसका ही स्वरूप हो जाता है वो ज्ञानी हो जाता है. ऎसा भगवान स्वयं कहते है:-

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ॥

अर्थात: - उनमें (सभी भक्तों में) नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अन्न्नय प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है.
(अध्याय ७ श्लोक २७)

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्त्मां गतिम ॥
(अध्याय ७ श्लोक २८)

अर्थात: - ये सभी उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है - ऎसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्दगत मन -बुधिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है. 
(अध्याय ७ श्लोक २९)

यहां परमात्मा ने सभी को उदार बताया है. क्योकि वजह चाहे कोई भी हो पर लगन सभी भक्तो की सच्ची है.

मै कौन हुं


मै कौन हुं

मैं

मेरा वास्ता 

एक ऐसां जहां  


जहां इन आखों से देखा नही जा सकता,
जहां इन कानो से सुना नही जा सकता,
जहां इस मुख से बोला नही जा सकता,
जहां इस नाक से सुघां नही जा सकता,
जहां इस मस्तिक से सोचा नही जा सकता,
जहां इन ,इन्द्रियों से कुछ भी मह्सूस नही किया जा सकता, 

वहां, जहां न ये शरीर है 
और न यह इन्द्रियां 

वहां केवल मैं हूं, केवल मैं
और कुछ नही

एक शाश्व्त, एक सत्य, एक आनंद, मैं
जो सदा से हूं, तब भी था अब भी हूं

यह शरीर मेरे लिये है, पर मै शरीर नही हूं,
मै शरीर से पहले भी था और शरीर के बाद भी हूं

मुझे वक्त की परवाह नही, इसका मुझ पर कोई जौर नही,
मै नही चलता इसके साथ, मै नही धलता इसके साथ

मेरा वास्ता उस जहां से है, जहां न वक्त है,
न यह प्रकति और न ही उसके गुण,

वहां केवल मैं हूं, केवल मै.......

सत्य क्या है ?


सत्य क्या है ?
बाल गंगा धर तिलक जी ने गीता जी पर अपनी एक टीका में एक बड़ा ही सुन्दर उदहारण दिया है जो को सत्य की परख पर है . वो कहते है मान लीजिये की आप किसी एक स्थान पर खड़े है और एक व्यक्ति भागता - भागता आता हुआ आपके पीछे कही आकर छुप जाता है और इसके कुछ क्षण बाद ही एक अन्य व्यक्ति हाथ में तलवार लिए उस छिपे हुए व्यक्ति को मारने के इरादे से आपके सामने आकर छिपे हुए व्यक्ति के बारे में पूछता है ! लेकिन आप सत्यानिष्ट है ऐस्सी स्थिति में आप क्या करेगे ? अब अगर शाब्दिक सत्य बोलते है तो वह छिपा हुआ व्यक्ति मारा जाता है और अगर झूठ बोलते है तो सत्यानिष्टता जाती है !

अब आपको सत्य को बचाने के लिए शाब्दिक सत्य से ऊपर उठाना पड़ेगा शब्दों के जाल को छोड़ना पड़ेगा  आप को यह समझना होगा की सत्य किसी भाषा का मोहताज नहीं है अब अगर किसी की जान बचानी है और एक पाप होने से बचाना है और अगर एक हिंसा होने से बचानी है तो शाब्दिक झूठ का सहारा लेकर सत्य की रक्षा करनी पड़ेगी ! क्योकि यहाँ सत्य की रक्षा करना ही सत्य है .

Tuesday, March 22, 2011

प्रकृति के तीन गुण


प्रकृति के तीन गुण 

गीता जी में एक श्लोक आता है जो की इस प्रकार है -

सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रक्रतिसम्भ्वा: |
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम ||

अथार्थ हे अर्जुन ! सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण - ये प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुण अविनाशी आत्मा को शरीर में बाँधने वाले है  !

इस पर एक कहानी स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के बारे में प्रसिद्ध है . यह कहानी उनके घर की है . स्वामी जी को खाने का बहुत शौक था जब भी उनकी पत्नी रसोई बना रही होती थी तो वो रसोईघर के चक्कर काटने लग जाते थे . उनकी इस बात पर उनकी पत्नी को बड़ी ही हैरानी होती थी . एक दिन उनकी पत्नी ने ठान ही लिया कि आज यह बात पूछ कर ही रहूगी . उस दिन जैसे ही स्वामी जी रसोई में आये तो उनकी पत्नी के कहा कि स्वामी जी आज आपसे एक प्रशन पूछना है - परन्तु यह प्रशन मैं पत्नी के नाते नहीं आपकी शिष्या होने के नाते से पूछ रही हू कि आप इतने बड़े संत है परन्तु जब रसोई बन रही होती है तो आप रसोईघर के चक्कर काटने लग जाते है तो क्या आप अभी तक इस बात से ऊपर नहीं उठ पाए ? स्वामी जी उतर देते है हा बिलकुल ठीक केवल यही एक गुण  है जिसे मैंने पकड़ रखा है इसी गुण के कारण ही मैं इस शरीर में हु परन्तु एक दिन ऐसा भी आएगा जिस दिन तुम थाली लेकर मेरे कमरे में आओगी और मैं बिना देखे ही कह दूंगा कि आज नहीं - बस उस दिन के ठीक ठीक तीन दिनों बाद मैं इस दुनिया से चला जाऊगा . और ठीक वैस ही हुआ .............

गीता जी में समाज

गीता जी में भी समाज को चार वर्णों में विभाजित किया हुआ है . ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र. आमतौर पर हम इस बात का गलत मतलब निकाल लेते है . गीता कि सामाजिक अध्यन की पुस्तक नहीं है जो समाज में रह रहे लोगो के वर्णों के बारे में बताएगी . इस बारे में स्वामी श्री परमहंस स्वामी Adgadanand ji जी ने बड़े ही अच्छे ढंग से इसका वर्णन किया है . उनके अनुसार शुद्र वो साधक है जो नए नए साधना मार्ग में आते है और जो थोडा बहुत ही साधना में बैठ पाते है, प्रकृति के तीन गुण बैठने नहीं देते . वैश्य वो साधक है जिनको साधना में कुछ नज़र आने लगता है . क्षत्रिय वो साधक है जिन्होंने प्रकर्ति के तीन गुणों का काटना सीख लिया है . और ब्रह्मण वो साधक है जो प्रकृति के तीन गुणों को काट चुके है - यथार्थ गीता By Swami Adgadanand ji.



भविष्य कि कहानी


भविष्य कि कहानी

आज दिनांक २१ मार्च सन २१२० है . तकनीक बहुत ही उनन्त हो चुकी है . जिंदगी बहुत ही यांत्रिक हो चुकी है . मानव जीवन के साथ - साथ एक यांत्रिक दुनिया भी स्थापित हो चुकी है . तरह तरह के यंत्र बन चुके है . सभी प्रक्रार के यन्त्र बुद्धिपूर्वक सोच कर कार्य करते है मानव का जीवन आसान हो चूका है . सभी यंत्र के नेटवर्क के साथ जुड़े हुए है और सभी यंत्र आपस में भी बातचीत कर सकते है . इस नेटवर्क के बिना कोई भी यंत्र काम नहीं कर सकता . इन्सान तकनीक दुवारा सभी यंत्रो को नेटवर्क के माध्यम से ओपेरट कर रहा है . यंत्र बहुत ही उन्नत हो चुके है , खराब यंत्र स्वयं को ठीक कर सकते है और एक यंत्र दुसरे यंत्र को भी ठीक कर सकता है . यंत्र आपस में अपना समय भी व्यतीत कर सकते है परन्तु नेटवर्क के माध्यम से .

कुछ यंत्र ऐसे भी है जो अपने खाली समय में एक ही बात सोचते है कि हमें किसने बनाया ? कौन हमें चला रहा है ? .................

समय का चक्कर


समय का चक्कर 

समय के अन्दर समय चल रहा है यह बात योग वशिष्ठ में एक कहानी के रूप में दर्शाई गयी है और इसके सबन्ध में एक कहानी भगवद पुराण में भी आती है जो की नारद और भगवान् विष्णु के बीच में है उसमे नारद भगवान् विष्णु से पूछते है की " माया क्या है ? तब भगवान् उन्हें पानी लेन भेजते है और वो पानी लेने जब एक सरोवर की किनारे पहुचते है तो अचानक तेज़ हवाए चलने लगती है और वो अपने आप को एक सुशील कन्या के पास खड़ा पाते है उस पर आसक्त हो उससे विवाह रचा लेते है फिर समय बिताता जाता है और पोती-पोते भी हो जाते है तो अचानक प्रलय आ जाती है और वो अपने परिवार का बचने के लिए ईश्वर से गुहार लगते है और तब अपने आप को उसी सरोवर पर खड़ा पाते है जहा वो पानी लेने गए थे - भगवान् विष्णु साथ खड़े है और पूछ रहे है की " क्या बात है नारद पानी लेन में इतनी देर क्यों लगा दी ! नारद हैरान रह जाते है और कहते है कि " मैंने तो कई साल गुज़ार दिए ? यह सब क्या है प्रभु " भगवान् कहते है "यही माया है नारद !" 

स्टीफेन हवाकिंस भी यही कहते है कि समय के अन्दर समय चल रहा है !